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________________ यही आज की दशा है। जैसे-जैसे अर्थ का आकर्षण बढ़ रहा है, वैसे-वैसे व्यक्ति की नैतिकता का पतन होता जा रहा है। यह पथभ्रष्टता सामाजिक संस्कृति एवं सभ्यता को विनष्ट कर रही है। ★ दुःख एवं अशान्ति -- व्यक्ति ने अर्थ को सुख–शान्ति का साधन तो माना, किन्तु सम्यक् अर्थ-प्रबन्धन के अभाव में उसे ही दुःख एवं अशान्ति का साधन बना दिया। आज व्यक्ति अनुकूलता में सुख का अनुभव तो करता है, किन्तु जैसे ही आर्थिक बाधा और कठिनाई आती है, वैसे ही वह दुःखी हो उठता है तथा धीरे-धीरे दुःख और परेशानी के भाव ही उसके चेहरे के स्थायी भाव बन जाते हैं। 132 * मिथ्यात्व एवं कषायों का पोषण - वर्तमान युग में अर्थ का साध्य न धर्म रहा है और न मोक्ष, इसका दुष्परिणाम यह है कि हमारी आर्थिक क्रियाएँ ही मिथ्यात्व एवं कषायों को प्रगाढ़ करने में सहायक हो रही हैं, जबकि जैनाचार्यों ने स्पष्ट हिदायत दी है - धनेन हीनोऽपि धनी मनुष्यो, यस्यास्ति सम्यक्त्वधनं महाय॑ । धनं भवेदेकभवे सुखार्थ, भवे भवेऽनन्त सुखी सुदृष्टिः ।। अर्थात् जिसके पास समकित (Right Vision) रूपी अमूल्य धन है, उसे धनहीन होने पर भी धनवान् समझना, क्योंकि धन तो एक भव में ही सुखदायक है, परन्तु समकित तो भव-भव में अनन्त सुखदायक है।133 इस प्रकार, हमने आज की अमर्यादित, असन्तुलित और अव्यवस्थित अर्थनीति तथा उसके दुष्परिणामों की सुविस्तृत समीक्षा की। ये दुष्परिणाम निश्चित रूप से चिन्ताजनक, कष्टप्रद और भयावह हैं। इनके निवारण हेतु आवश्यकता है - जैनआचारमीमांसा के आधार पर अर्थ-प्रबन्धन की, जिसकी चर्चा अब की जा रही है। ===== ===== 557 अध्याय 10 : अर्थ-प्रबन्धन 29 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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