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________________ 1.2 जीवन-प्रबन्धन के सन्दर्भ में जीवन का स्वरूप एवं मानव-जीवन में प्रबन्धन की योग्यता 'जीवन-प्रबन्धन' दो शब्दों से मिलकर बना है - 'जीवन' और 'प्रबन्धन'। जीवन-प्रबन्धन के सम्यक् बोध के लिए सर्वप्रथम जीवन को समझना आवश्यक है। जीवन वह सत्य है, जिसका अनुभव प्रत्येक मानव को होता है, लेकिन जीवन का सम्यक् स्वरूप समझे बगैर ही सामान्यतया जीवन बीत जाता है। वस्तुतः, जीवन क्या है (What is life), यह जीवन-प्रबन्धन का प्रथम एवं अहम प्रश्न है। प्रथम इसलिए है, क्योंकि जीवन-प्रबन्धन की सारी प्रवृत्तियाँ जीवन के अस्तित्व पर निर्भर करती हैं। जीवन के होने पर ही सब कुछ सम्भव है और जीवन के न होने पर कुछ भी नहीं। जीवन की समाप्ति के साथ ही जीवन-प्रबन्धन की सम्भावनाएँ भी समाप्त हो जाती हैं। जीवन का प्रश्न अहम इसलिए है, क्योंकि जीवनकाल में जिन वस्तुओं का मूल्य होता है, जीवन की समाप्ति के साथ ही वे वस्तुएँ व्यक्ति के लिए मूल्यहीन हो जाती हैं। अतः जीवन-प्रबन्धन अर्थात् जीवन का सम्यक् दिशा में नियोजन करने के लिए जीवन के स्वरूप को जानना अत्यावश्यक है। 1.2.1 जीवन का अर्थ ___ जैनदर्शन के आधार पर जीने की प्रक्रिया ही जीवन है (The process of living is life)। प्रत्येक प्राणी की क्रमशः तीन मुख्य अवस्थाएँ होती हैं - जन्म, जीवन और मृत्यु। अतः जीवन और कुछ नहीं, जन्म और मृत्यु के बीच की अवस्था है। इन तीनों अवस्थाओं में जीवन का महत्त्व विशिष्ट है, क्योंकि 'जन्म' और 'मृत्यु' तो क्षणिक हैं और इन पर प्राणी का कोई बस नहीं चलता, जबकि 'जीवन' अपेक्षाकृत दीर्घ होता है और इसके पल्लवन, पोषण, संवर्धन एवं विकास के लिए प्राणी स्वतन्त्र होता है। जैनदर्शन आत्मवादी, लोकवादी, कर्मवादी एवं क्रियावादी दर्शन है, जिसमें यह माना गया है कि जीवात्मा अपने पूर्वकृत कर्मों के अनुसार पूर्वजन्म को समाप्त कर नवीन शरीर को धारण करता है और एक निश्चित अवधि तक इसमें जीकर अगले जन्म के लिए प्रस्थान करता है, इस दृष्टि से पूर्वजन्म और पुनर्जन्म के बीच के अन्तराल में आत्मा और शरीर की संयोगजन्य व्यवस्था जीवन है। जैनदर्शन में जीवन की व्याख्या दो दृष्टियों से की गई है - आध्यात्मिक और व्यावहारिक । आध्यात्मिक-दृष्टि (निश्चय-दृष्टि) आत्मा को ही जीवन का एकमात्र कारण मानती है और उसके अनुसार, यह जीवन जीव का ही कार्य है, क्योंकि जो जीता है, वह वास्तव में जीव ही है (जीवति इति जीवः)। व्यावहारिक-दृष्टि 'आत्मा' और 'शरीर' दोनों को जीवन का प्रमुख घटक मानती है और उसके अनुसार, यदि आत्मा जीवन की अंतरंग अभिव्यक्ति है, तो शरीर जीवन की बाह्य अभिव्यक्ति है तथा इन दोनों की सांयोगिक अवस्था ही जीवन है। प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध में आध्यात्मिक-दृष्टि को लक्ष्य में रखकर व्यावहारिक-दृष्टि की मुख्यता से जीवन की चर्चा की गई है। श्रीमद्राजचन्द्र ने भी इस समन्वयात्मक नीति की पुष्टि जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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