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________________ करते हुए कहा है - निश्चय वाणी सांभळी, साधन तजवा नो'य। निश्चय राखी लक्षमां, साधन करवा सोय।।' अर्थात् आध्यात्मिक-दृष्टि से कहे गए उपदेशों को सुनकर व्यावहारिक-दृष्टि को त्यागना नहीं चाहिए, बल्कि आध्यात्मिक-दृष्टि को लक्ष्य मे रखकर व्यावहारिक-दृष्टि रूपी साधन का उपयोग कर लेना चाहिए। 1.2.2 जीवन के अंग जीवन का पहला अंग है - आत्मा। इसे जीव, चेतन, सत्त्व, भूत आदि अनेकानेक नामों से पहचाना जाता है। प्रायः सभी भारतीयदर्शन और विशेष रूप से जैनदर्शन में जीव को ही जीवन का मुख्यतम आधार माना गया है। जैनदर्शन में जीव तथा अजीव दोनों के अस्तित्व को स्वीकारा गया है और यह स्पष्ट कहा गया है कि न अजीव से जीव उत्पन्न होता है और न जीव से अजीव। जीव चैतन्यशक्ति से युक्त एक अभौतिक द्रव्य (Non Physical Substance) है, जबकि अजीव चैतन्यशक्ति से रहित एक भौतिक द्रव्य (Corporeal Substance) है। यह जीव यद्यपि रूप, रस, गन्ध, स्पर्श एवं शब्द आदि भौतिक विशेषताओं से विरहित है, फिर भी यह ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य और उपयोग आदि अनन्त शक्तियों का पिण्ड है। इसकी सबसे महत्त्वपूर्ण शक्ति है - ज्ञान-शक्ति अर्थात् जानने की शक्ति, जिसके बल पर जीव प्रतिक्षण स्व या पर वस्तुओं सम्बन्धी जानने, देखने, सोचने, समझने, विश्लेषण करने, संश्लेषण करने, स्मरण करने, अनुभव करने, कल्पना करने, निर्णय करने, धारणा करने आदि की क्रियाएँ करता रहता है। दर्शन-शक्ति एक अन्य महत्त्वपूर्ण शक्ति है, जिसके द्वारा जीव स्व या पर वस्तुओं से सम्बन्धित मान्यता या दृष्टिकोण बनाता है। चारित्र-शक्ति भी एक विशिष्ट शक्ति है, जिसके माध्यम से जीव स्व या पर के प्रति अपनी प्रतिक्रिया (आचरण) करता है। तप वह महत्त्वपूर्ण शक्ति है, जिसके बल पर जीव अपने कार्यों में विशेष प्रयत्न करता है। वीर्य-शक्ति भी एक अहम शक्ति है, जिसके द्वारा जीव विशेष उत्साहित होकर किसी भी कार्यविशेष को सम्पादित करने का प्रयत्न करता है। इन ज्ञानादि शक्तियों के अतिरिक्त भी आत्मा में सहज और शाश्वत् अनेकानेक शक्तियाँ होती हैं। अधिक क्या कहें, द्वादशानुप्रेक्षा में स्पष्ट कहा है कि यह जीव उत्तम गुणों का आश्रय है, समस्त द्रव्यों में उत्तम है और सब तत्त्वों में परम है। जीवन-प्रबन्धन की दृष्टि से भी आत्मा ही जैन-जीवन-प्रबन्धन का मुख्य सूत्रधार है। यदि आत्मा और उसकी शक्तियों का सम्यक दिशा में नियोजन किया जाए, तो ये जीवन-विकास की हेतु बन सकती हैं, अन्यथा ये ही अवरोधक भी बन जाती हैं। प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध का मुख्य लक्ष्य उन प्रबन्धकीय सूत्रों का निर्देश करना है, जिनके माध्यम से व्यक्ति अपनी आत्मिक-शक्तियों का सम्यक् दिशा में प्रयोग करता हुआ आत्मिक-पवित्रता में अभिवृद्धि करे, जो उसके जीवन निर्वाह एवं जीवन-निर्माण सम्बन्धी कार्यों में सहयोगी बन सके। अध्याय 1: जीवन-प्रबन्धन का पथ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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