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________________ सामाजिक–प्रबन्धन एक दोहरी व्यवस्था है। एक ओर हमें व्यक्ति को आधार बनाना होगा, तो दूसरी ओर सामाजिक व्यवस्था और मूल्यों को भी महत्त्व देना होगा। सामाजिक मूल्यों की निश्रा में ही व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास होगा और ऐसे व्यक्तित्ववान् व्यक्तियों की पारस्परिक अन्तःक्रियाओं (Interaction) से ही स्वस्थ समाज की संरचना हो सकेगी। 9.1.2 समाज का महत्त्व " समाज मनुष्य की एक महान् उपलब्धि है, जिसे न तो मूर्त रूप से देखा जा सकता है और न ही हाथों से छुआ जा सकता है, इसे तो केवल महसूस ही किया जा सकता है। श्री युटर के अनुसार, जिस प्रकार जीवन कोई वस्तु नहीं, अपितु जीवित रहने की एक प्रक्रिया है, उसी प्रकार समाज भी कोई वस्तु नहीं, अपितु पारस्परिक सम्बन्ध स्थापित करने की एक प्रक्रिया है । 11 किन्तु आज व्यक्ति भौतिकता की चकाचौंध में समाज के महत्त्व को अनदेखा कर स्वयं अपना ही अहित कर रहा है। अतः सामाजिक - प्रबन्धन की चेतना को जाग्रत करने के लिए समाज की निम्नलिखित उपयोगिता को समझना आवश्यक जाता है। (1) व्यक्ति के विकास में सहायक जन्म से मृत्यु तक व्यक्ति सामाजिक-व्यवस्था पर निर्भर रहता है। शैशव-काल, यौवनावस्था एवं वृद्धावस्था आदि सभी अवस्थाओं में व्यक्ति के सर्वांगीण विकास में समाज का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है । व्यक्ति में पाशविक वृत्तियों का विनाश एवं मानवीय गुणों का विकास करने में सामाजिक - मार्गदर्शन अपना प्रभाव डालते हैं । व्यक्ति के व्यक्तित्व एवं व्यवहार पर सामाजिक मान्यताओं का गहरा प्रभाव परिलक्षित होता है। (2) आवश्यकताओं की पूर्ति एवं समस्याओं के समाधान में सहायक मनुष्य की अनेकानेक आवश्यकताएँ हैं, जिनकी पूर्त्ति वह स्वयं नहीं कर सकता, अतः उसे समाज एवं उसके सदस्यों पर आश्रित होना पड़ता है। जीवन की मूलभूत आवश्यकताएँ तो सिर्फ रोटी, कपड़ा और मकान मानी जाती है, किन्तु इनके अतिरिक्त भी व्यक्ति की सुख-सुविधा एवं सम्मान से युक्त जीवन की अनेक आवश्यकताएँ होती हैं, जिनमें समाज ही सहायक होता है। इतना ही नहीं, धर्म की उत्पत्ति एवं उससे प्राप्त होने वाले आध्यात्मिक सुख के लिए भी वह समाज पर निर्भर रहता है। समाज के सांस्कृतिक मूल्यों, धर्मग्रन्थों एवं उपासना पद्धतियों के सहारे वह आध्यात्मिक आवश्यकताओं की पूर्ति करता है। — केवल आवश्यकता की पूर्ति ही नहीं, अपितु जीवन की विविध समस्याओं के समाधान में भी समाज मार्गदर्शन करता है। वस्तुतः, समस्याओं के कारण एवं निवारण का ज्ञान सामाजिक पृष्ठभूमि से ही प्राप्त होता है। Jain Education International - (3) शिक्षा का सम्पूर्ण साधन ज्ञान मनुष्य की अमूल्य पूंजी है, वह इसे समाज की पाठशाला से ही प्राप्त करता है और इससे जीवन को सँवारने का प्रयत्न करता है । समाज से प्राप्त शिक्षा के 4 जीवन- प्रबन्धन के तत्त्व - For Personal & Private Use Only 494 www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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