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________________ द्वारा व्यक्ति अच्छे एवं बुरे कर्मों के अन्तर को समझ पाता है और यह समझ ही उसके व्यवहार का मापदण्ड है। ग्रहणात्मक (सैद्धान्तिक ) शिक्षा एवं आसेवनात्मक (प्रायोगिक) शिक्षा दोनों के लिए व्यक्ति को समाज पर ही निर्भर होना पड़ता है। अतः कहा जा सकता है कि शिक्षा के सम्पूर्ण साधनों की प्राप्ति में समाज की अहम भूमिका है। व्यक्ति जन्म से ( 4 ) समाजीकरण में सहायक सामाजिक नहीं होता, किन्तु समाज में रहकर वह समाजीकरण की प्रक्रिया के द्वारा सामाजिक बन जाता है। माता-पिता, कुटुम्बी, गुरुजन, साथियों आदि के द्वारा सामाजिक मूल्यों एवं मान्यताओं की सीख बचपन से ही प्रारम्भ हो जाती है और सतत बढ़ती जाती है। इससे व्यक्ति शनैः-शनै: सामाजिक होता जाता है। (5) नैतिक गुणों के विकास एवं संस्कृति के संरक्षण में सहायक मनुष्य का आचरण ही मनुष्य की श्रेष्ठता का प्रतिबिम्ब है । परन्तु मनुष्य का आचरण तभी श्रेष्ठ हो सकता है, जब उसमें मानवता, दया, करुणा, त्याग, सहिष्णुता जैसे नैतिक गुणों एवं सांस्कृतिक मूल्यों का विकास हो। इस हेतु मनुष्य समाज का ऋणी है, क्योंकि समाज के महान् ऋषियों, मुनियों, तपस्वियों, मनीषियों एवं सुधारकों ने उन आदर्श प्रतिमानों (Standards) की स्थापना की है, जो समाज के प्रत्येक व्यक्ति के लिए पथ-प्रदर्शक हैं। इनके आदर्शों एवं उपदेशों का आलम्बन लेकर व्यक्ति अपना नैतिक कल्याण कर सकता है। - (6) आध्यात्मिक साधना में सहायक जहाँ समाज गृहस्थोचित सम्बन्धों के उचित निर्वहन में सहयोग देता है, वहीं आध्यात्मिक विकास के लिए भी साधनभूत होता है। समाज से ही व्यक्ति को भौतिक सुखों की तुच्छता तथा आत्मिक सुखों की उत्कृष्टता का ज्ञान प्राप्त होता है । वह यह समझ पाता है कि शरीर और आत्मा भिन्न-भिन्न हैं, रागादि दुःख रूप हैं और इनसे निवृत्ति के साधन सुख रूप हैं। इसी ज्ञान के बल पर वह वैराग्य भावना से वासित होकर समाज ( प्रवृत्ति) से असमाज (निवृत्ति) अर्थात् संग से असंग दशा की ओर आगे बढ़ता है। इस प्रकार मुक्ति के प्रयासों में समाज का सहयोग असाधारण है । इसी अपेक्षा से जैनदर्शन में समाज को 'तीर्थ' शब्द से सम्बोधित किया जाता है (तीर्यते संसार - सागरो येन तत् तीर्थम्) । कहा भी गया है। यह संसार समुद्र के समान है और संघ (समाज) तीर्थ रूप है अर्थात् संसार से तिरने का माध्यम है। इसमें मौजूद साधुगण तिराने वाले (तारक) हैं और सम्यक् ज्ञान, दृष्टि एवं आचरण तिरने के अंतरंग साधन हैं। 12 (7) आत्माभिव्यक्ति का साधन जीवन की यात्रा में आत्माभिव्यक्ति अर्थात् अन्तरात्मा की आवाज का अपना महत्त्व है। यह समाज में घटित घटनाओं के प्रति बनाए गए दृष्टिकोण या अनुभव पर आधारित होती । समाज की कुछ घटनाएँ हमारी संवेदनाओं को गहराई तक प्रभावित करती हैं, जिससे हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि घटना का अच्छा पक्ष क्या है और बुरा क्या ? इन भावात्मक संवेदनों से ही हम सकारात्मक घटनाओं के प्रति आकर्षित और नकारात्मक घटनाओं से विकर्षित होते 495 Jain Education International अध्याय 9: समाज-प्रबन्धन For Personal & Private Use Only 5 www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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