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________________ इस दृष्टि से प्रो. डेविस की यह मान्यता उचित प्रतीत होती है कि केवल सामाजिक सम्बन्धों का ढेर ही समाज नहीं होता, वरन् जब सामाजिक सम्बन्धों की एक व्यवस्था पनपती है, तभी वह समाज कहलाता है। सर्वश्री मैकाइवर एवं पेज ने भी इस बात की पुष्टि की है। उनके शब्दों में, “समाज रीतियों और कार्यप्रणालियों की, अधिकार और सहयोग की, समूह और विभागों की तथा मानव व्यवहार के नियन्त्रण और स्वतन्त्रता की एक व्यवस्था है।" जैनाचार्यों ने भी सदैव मूल्य एवं आदर्श से युक्त व्यक्तियों के समूह को ही समाज कहा है। उन्होंने समाज के लिए 'संघ' शब्द का प्रयोग करते हुए यह कहा है कि संघ गुणों का एकत्रित रूप है। यह पापकर्मों से छुटकारा दिलाने वाला है, राग और द्वेष से मुक्त करने वाला है और सभी जीवों के प्रति समान व्यवहार करने वाला है। इस प्रकार जैनदर्शन में समाज को केवल व्यक्तियों के समूह के रुप में ही नहीं, अपितु मूल्यपरक व्यवस्था के रूप में देखा जाता है। स्वयं ‘संघ' शब्द भी इस बात को इंगित करता है कि वह तोड़ने नहीं, अपितु जोड़ने का कार्य करता है (संघात इति संघः)।" वस्तुतः जैनदर्शन में संघ या समाज को व्यक्ति के ऊर्ध्वमुखी विकास के लिए एक व्यवस्था के रूप में स्वीकारा गया है। जहाँ विकास अथवा मूल्य नहीं हो, वहाँ जैनाचार्यों की दृष्टि में समाज या संघ का अस्तित्व ही सम्भव नहीं है। संघ (समाज) के महत्त्व को स्पष्ट करते हुए नन्दीसूत्र के प्रारम्भ में कहा गया है – “संघमेरू का मध्यभाग रत्नत्रय से देदीप्यमान है, अहिंसादि पाँच शील की सुगन्ध से सुरभित है, तप से शोभायमान है तथा द्वादशांग रूपी उत्तुंग शिखर से युक्त है, इन विशेषणों से संघ की विलक्षणता दृष्टिगत है।' इसी आधार पर हम सामाजिक-प्रबन्धन की बात आगे करेंगे। किन्तु यह सामाजिक-प्रबन्धन कौन करेगा और कैसे करेगा, यह एक विचारणीय विषय रहा है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सामाजिक-प्रबन्धन की जो बात कही जाती है, उसके लिए सबसे पहले व्यक्ति और समाज के पारस्परिक सम्बन्ध को समझ लेना आवश्यक है। इस विषय में दो प्रकार की विचारधाराएँ हैं। पहली के अनुसार, व्यक्ति ही समाज की महत्त्वपूर्ण इकाई है, अतः व्यक्ति के सुधार से ही सामाजिक-सुधार अर्थात् सामाजिक-प्रबन्धन हो सकता है। किन्तु दूसरी के अनुसार, समाज अधिक महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि समाज अधिक व्यापक है, इसमें समाहित होकर व्यक्ति के व्यक्तित्व की कोई अलग पहचान नहीं होती। इस प्रकार व्यक्ति इस अर्थ में बड़ा है कि वह समाज-रचना का मूल आधार है और समाज इस अर्थ में बड़ा है कि वह व्यक्ति का आश्रय है। जैनदर्शन के परिप्रेक्ष्य में हम केवल एकांगी दृष्टिकोण रखकर समाज-प्रबन्धन की बात नहीं कर सकते। यह सत्य है कि व्यक्ति सामाजिक संगठन की एक महत्त्वपूर्ण इकाई है, किन्तु व्यक्ति समाज-निरपेक्ष नहीं है, व्यक्ति का व्यक्तित्व समाज-सापेक्ष है। यह कहा जा सकता है कि व्यक्ति का व्यक्तित्व समाज की देन है अर्थात् समाज से निर्मित है। वस्तुतः, कोरे व्यक्तिवाद अथवा कोरे समाजवाद के बजाय व्यक्तिवादी समाज और समाजवादी व्यक्ति ही अधिक उपयुक्त है। हमें अनेकान्त दृष्टि के द्वारा पहल करनी चाहिए, जिससे व्यक्ति और समाज दोनों का कल्याण हो सके। अतः अध्याय 9 : समाज-प्रबन्धन 493 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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