SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 582
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 6) चतुरंगिणी सेना एवं सेनापतियों की व्यवस्था। 7) विवाह-पद्धति का गठन। 8) कृषि-व्यवस्था का स्थापन। 9) पाक-विद्या का प्रशिक्षण। 10) कला और शिल्प विद्या का उद्भव। 11) न केवल लौकिक धर्म, अपितु लोकोत्तर धर्म की भी स्थापना। 12) आध्यात्मिक साधना की आचार संहिता की सम्यक् व्यवस्था इत्यादि।' भगवान् ऋषभदेव द्वारा प्रबन्धित ये सामाजिक व्यवस्थाएँ सिद्धान्ततः आज भी प्रचलित हैं। यद्यपि इनमें देश, काल एवं परिस्थिति के आधार पर अनेक परिवर्तन होते रहे हैं, तथापि इनका मूलस्वरूप ज्यों का त्यों बना रहा। आगे, हम समाज के स्वरूप पर कुछ विचार करेंगे। 9.1.1 समाज का स्वरूप समाज का सामान्य अर्थ वर्ग-हित के लिए संगठित व्यक्तियों का एक समूह है, किन्तु यह मान्यता उचित प्रतीत नहीं होती, केवल व्यक्तियों का समूह समाज नहीं कहा जा सकता। यदि इतना ही अर्थ होता तो पशुओं के झुण्ड (समूह) को भी समाज कहा गया होता, परन्तु यह ज्ञातव्य है कि भारतीय भाषा-विज्ञानियों ने पशुओं के समूह को “समाज' नहीं, अपितु “समज' शब्द के द्वारा व्याख्यायित किया है। वस्तुतः, समाज सामाजिक सम्बन्ध की एक व्यवस्था है। इससे भी ऊपर उठकर देखें, तो समाज एक प्रकार से विविध सामाजिक व्यवस्थाओं के आधार पर निर्मित एक संगठन है। डॉ. सागरमल जैन के अनुसार, व्यक्ति और समाज वस्तुतः एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं, जिस प्रकार वस्त्र धागों की एक व्यवस्थित संरचना है, उसी प्रकार समाज भी व्यक्ति की एक ऐसी संरचना है, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति समाज से जुड़ा हुआ है। वस्तुतः, व्यक्ति के अभाव में समाज एक अमूर्त कल्पना है और समाज के अभाव में व्यक्ति व्यक्तित्वविहीन इकाई है। अतः यह मानना होगा कि सामाजिक संरचना में व्यक्ति और समाज एक-दूसरे से अभिन्न हैं। यह सत्य है कि व्यक्तियों के समूह से समाज का निर्माण होता है, लेकिन व्यक्तियों की भीड़ को ही समाज नहीं कहा जा सकता। सामाजिक जीवन के कुछ मूल्य एवं व्यवस्थाएँ भी होती हैं, जिन्हें एक ओर रखकर समाज की कल्पना नहीं की जा सकती। अतएव यह कहना पूर्ण नहीं है कि समाज केवल व्यक्तियों के सामाजिक सम्बन्धों का जाल है। सामाजिक जीवन के मूल्यों और आदर्शों को साथ में लेकर ही समाज की समीचीन व्याख्या की जा सकती है। जब हम सामाजिक-प्रबन्धन की बात करते हैं, तो हमें यह समझ लेना अत्यावश्यक है कि कोई भी प्रबन्धन मूल्यविहीन नहीं हो सकता, उसके कुछ मूल्य या आदर्श अवश्य होते हैं। उन्हीं आदर्शों के आधार पर हम सामाजिक-व्यवस्था या सामाजिक-प्रबन्धन की बात कर सकते हैं। जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व । 492 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy