SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 581
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अध्याय 9 समाज-प्रबन्धन (Social Management) 9.1 समाज का स्वरूप एवं समाज का महत्त्व समाज मानवीय सभ्यता का एक पुरातन आधार रहा है। मानवीय सभ्यता के प्रारम्भ से ही समाज का अस्तित्व देखा जाता है। जैनकथासाहित्य में भगवान् ऋषभदेवजी को वर्तमान अवसर्पिणी काल का प्रथम सामाजिक-व्यवस्थापक माना जाता है। ये उस काल में हुए, जब वर्तमान अवसर्पिणी काल का तीसरा आरा (कालचक्र का एक खण्डविशेष) समाप्ति की ओर था। उस समय जीवनशैली की स्थिति बिगड़ने लगी थी तथा मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाले कल्पवृक्षों की शक्ति और संख्या भी क्षीण होने लगी थी। इससे आम आदमी की आवश्यकता पूर्ति के साधनों का ह्रास होने लगा। फलस्वरूप, आपराधिकवृत्ति का जन्म होने लगा एवं जनसंघर्ष पनपने लगा। इससे पीड़ित जनता ने क्षेत्रीय संगठन की स्थापना की, जिसे 'कुल' के रूप में पहचाना गया, इसके मुखिया 'कुलकर' कहलाए। इन्होंने क्रमशः 'हाकार, माकार एवं धिक्कार' की दण्डनीति के द्वारा समाज को व्यवस्थित करने का प्रयास किया। किन्तु, जब ये नीतियाँ तथा कुलकर-व्यवस्था भी गड़बड़ाने लगी, तब भगवान् ऋषभदेव ने अपनी गृहस्थावस्था में सामाजिक-व्यवस्था को व्यवस्थित करने के लिए अनेक उपयोगी व्यवस्थाओं का निर्माण किया और समाज को एक सुदृढ़, सुव्यवस्थित एवं सुमर्यादित आकार प्रदान किया। आज जो समाज व्यवस्था दिखाई दे रही है, इसमें भगवान् ऋषभदेवजी का अविस्मरणीय योगदान रहा। सामाजिक सुव्यवस्था हेतु उनके द्वारा स्थापित कुछ प्रमुख मार्गदर्शक नीतियाँ इस प्रकार 1) राजा और प्रजा के मध्य पिता-पुत्र जैसा सम्बन्ध । 2) विविध कुलों की स्थापना – उग्र, भोग, राजन्य एवं क्षत्रिय । 3) नागरिक जीवन की सुरक्षा के लिए आरक्षक दलों की स्थापना। 4) उचित मंत्रणा हेतु मंत्री-परिषद् का गठन। 5) दूरदराज के क्षेत्रों में राजा का प्रतिनिधित्व करने वाले वर्ग की नियुक्ति, जैसे - राजदूत प्रणाली। 491 अध्याय 9: समाज-प्रबन्धन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy