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________________ जैनाचार्यों ने तो यहाँ तक कहा है कि महाव्रती साधु-साध्वियों को हाथ, पाँव, काष्ठ, बाँस की खपच्ची आदि के द्वारा सामान्य क्रियाओं, जैसे – कुरेदना, खोदना, चित्रित करना, रेखा करना, हिलाना, चलाना, भेदना, तोड़ना, विदारणा, दो-तीन भाग करना आदि के द्वारा पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा नहीं करनी चाहिए। इससे समझा जा सकता है कि जब साधारण कार्यों के लिए ही निषेध है, तो विशेष कार्यों का तो प्रश्न ही नहीं उठता। यह भूमि–संरक्षण का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है।'62 ऐसा नहीं है कि जैनआचारमीमांसा में सिर्फ साधु-साध्वियों के लिए ही भूमि–संरक्षण के योग्य कर्तव्यों का विधान है। गृहस्थ उपासकों के लिए भी कहा गया है कि वे भी वनकर्म, अंगारकर्म एवं स्फोटककर्म के द्वारा पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा न करे। आचारांग में कहा गया है कि विषय-कषायादि से पीड़ित, विवेक शून्य एवं सुख के लिए आतुर व्यक्ति पृथ्वी के जीवों को अनेक तरह से पीड़ित करते हैं। 163 जैनआचारमीमांसा में स्पष्ट निर्देश दिए गए हैं कि गृहस्थ को भी कृषि कर्म को छोड़कर अंशतः तो अपनी इन हिंसक क्रियाओं को मर्यादित करना ही चाहिए। यह भूमि-संरक्षण के लिए उपयोगी निर्देश है। वर्तमान में पर्वतों को अनियन्त्रित रूप से ढहाया जा रहा है। पहाड़ी क्षेत्रों को समतल किया जा रहा है। भविष्य की ओर दृष्टिपात किए बिना पृथ्वी का खनन किया जा रहा है। खनिज सम्पदा को अधिक प्राप्त करने की चाह में प्राकृतिक सन्तुलन बिगड़ रहा है।164 इसका समाधान हमें जैनाचार में मिलता है, जहाँ गृहस्थ के लिए भूमिस्फोटक कर्म निषिद्ध है अर्थात् ऐसा व्यवसाय जिसमें शस्त्र या विस्फोटक द्रव्यों आदि के द्वारा खदान खोदने, पत्थर फोड़ने, तालाब-कुएँ खोदने, शिलाओं को तोड़ने आदि की अनियन्त्रित क्रियाएँ की जाती हैं, उसे अनुचित एवं त्याज्य माना गया है।165 आज सुविधावादी संस्कृति को अत्यधिक बढ़ावा मिल रहा है। व्यक्ति अधिक से अधिक सुविधामय जीवन जीना चाहता है। इसी कारण, वह फर्नीचर, बर्तन, उपकरण, वाहन आदि का अनियंत्रित संग्रह कर रहा है। इन सामग्रियों को जैनदर्शन में द्रव्य–परिग्रह कहा जाता है, जबकि इनके प्रति होने वाला ममत्व या मोह भाव , भाव-परिग्रह कहलाता है।166 इनमें से अधिकांश सामग्रियाँ लकड़ी, लोहा, स्टील, प्लास्टिक, फोम, रबर, रसायन, सीमेन्ट, रेती, बालू, संगमरमर आदि से निर्मित होती हैं। इनके अधिक उपयोग करने का अर्थ है - इनके उत्पादन एवं दोहन को अधिक प्रोत्साहन देना। इसी कारण, जैनआचार में परिग्रह को परिमित करने हेतु गृहस्थ को निर्देश दिया गया है। इससे हम पृथ्वीकायिक जीवों के संरक्षण अर्थात् भूमि संसाधनों के संरक्षण में अपना व्यक्तिगत योगदान दे सकते हैं। इसी प्रकार जैनाचार में गृहस्थ को पृथ्वीकाय सम्बन्धी अर्थहीन क्रियाओं को ही करने एवं निरर्थक क्रियाओं को त्यागने का निर्देश भी दिया गया है, जो 'अनर्थदण्डत्याग व्रत' के अन्तर्गत आता है।167 461 अध्याय 8 : पर्यावरण-प्रबन्धन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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