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________________ जूलियस हक्सले के अनुसार, 'पेन्सिल की नोंक से जितनी मिट्टी उठ सकती है, उसमें दो अरब से भी अधिक कीटाणु (जीव) होते हैं।157 यह वैज्ञानिक कथन न केवल जैनआचारमीमांसा की प्रामाणिकता को सिद्ध करता है, अपितु पृथ्वी के जीवों के प्रति आत्मीय दृष्टिकोण की आवश्यकता को प्रतिपादित भी करता है। इतना ही नहीं, जीवाजीवाभिगम में पृथ्वी पर आश्रित जीवों के बारे में नहीं, बल्कि स्वयं पृथ्वी के जीवों के बारे में कहा गया है कि वे जघन्य-उत्कृष्ट रूप (न्यूनतम-अधिकतम रुप) से अंगुल के असंख्यातवें भाग परिमाण वाले होते हैं। कहा जा सकता है कि सूई की नोंक बराबर पृथ्वी के भाग में असंख्य जीव होते हैं।158 अतः मनुष्यों को चाहिए कि वे इनकी अधिकाधिक रक्षा अर्थात् इनका संरक्षण करे। जैनदर्शन में तो कहा भी गया है कि दान में सर्वश्रेष्ठ है - अभयदान।159 इस प्रकार जैन-दर्शन में पृथ्वीकायिक जीवों की रक्षा का निर्देश दिया जाना भूमि-संरक्षण के लिए अत्यन्त हितकर है। जीवदया के उद्देश्य से आचारांग में पृथ्वीकायिक निरपराधी जीवों के प्रति आत्मतुल्य दृष्टिकोण पूर्वक उनकी नृशंस हिंसा का मर्मस्पर्शी चित्रण किया गया है। कहा गया है कि यदि कोई व्यक्ति जन्म से अन्धा, बहिरा, लूला, लंगड़ा तथा हीन अवयव वाला हो और कोई दूसरा व्यक्ति भाले आदि के द्वारा उसके पाँव, टखने, पिण्डली, घुटने, जंघा, कमर, नाभि, पेट, पसली, पीठ, छाती, हृदय, स्तन, कन्धा, भुजा, हाथ, अंगुलि , नख, गर्दन, दाढ़ी, होंठ, दाँत, जीभ, तालु, गाल, कान, नाक, आँख, भौंहे, ललाट, मस्तक इत्यादि अवयवों का छेदन-भेदन करे, तो उसे वेदना तो होती है, किन्तु वह व्यक्त नहीं कर सकता, वैसी ही वेदना पृथ्वीकायिक जीवों को भी होती है।160 यदि हर व्यक्ति इतनी आत्मीयता एवं करुणापूर्वक चिन्तन करे तो भूमि-संरक्षण स्वतः हो जाए, यही जैनआचारमीमांसा की विशिष्टता है। पर्यावरण-प्रबन्धन के लिए जैन साधु-साध्वियों का जीवन आज इस कलियुग में भी एक आदर्श है। इसका एक उदाहरण है – इनकी भूमि-संरक्षण सम्बन्धी चर्या । दशवैकालिक में कहा गया है - 'मुनि को सजीव पृथ्वी पर नहीं बैठना चाहिए' अर्थात् मुनि को सजीव भूमि पर तो बैठना ही नहीं चाहिए एवं निर्जीव भूमि पर भी आसन के बिना नहीं बैठना चाहिए।161 यहाँ भी तत्त्व छिपा है। यदि मुनि इस निर्देश की उपेक्षा करता है, तो उसकी दैहिक उष्मा से पृथ्वी में विद्यमान जीवों की हिंसा हो जाएगी एवं अप्रत्यक्ष रूप से इसका प्रभाव पारिस्थितिकीय तन्त्र पर आएगा। हम कल्पना कर सकते हैं कि जैनाचार्यों की भूमि-संरक्षण के प्रति कितनी अधिक जागरुकता रही है। इसी प्रकार, वर्तमान में जहाँ दुनिया में लोग कूड़ा-करकट, धूल, सब्जी के पोलीथिन, छिलके, बोतलें आदि अपशिष्ट जहाँ-तहाँ फेंक देते हैं, वहीं जैनआचारमीमांसा में साधु-साध्वियों के लिए मल-मूत्र का विसर्जन भी निर्जीव भूमि पर सम्यक् प्रतिलेखन करने के पश्चात् ही करने का निर्देश दिया गया है। इससे भी भूमि-प्रदूषण से बचाव होता है। 36 जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व 460 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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