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________________ 8.6 जैनआचारमीमांसा में पर्यावरण-प्रबन्धन का प्रायोगिक पक्ष जैनआचारमीमांसा में पर्यावरण-प्रबन्धन से सम्बन्धित न केवल सैद्धान्तिक (ग्रहणात्मक), बल्कि प्रायोगिक (आसेवनात्मक) शिक्षाएँ भी दी गई हैं। जहाँ सैद्धान्तिक शिक्षाओं के माध्यम से अहिंसा, आत्मौपम्य, सहकारमूलक आदि जीवन-दृष्टियों का विकास होता है, वहीं प्रायोगिक शिक्षाओं के द्वारा सम्यक् जीवन-व्यवहार का निर्माण होता है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति एवं त्रस - इन षट्जीवनिकायों के साथ हमारा सम्यक् व्यवहार ही पर्यावरण-प्रबन्धन के लक्ष्यों की प्राप्ति में सहायभूत हो सकता है। इस सन्दर्भ में जैनआचारग्रन्थों, जैसे - आचारांग, सूत्रकृतांग, जीवाजीवाभिगम, भगवती, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक आदि में स्पष्ट निर्देश दिए गए हैं, जिनका परिपालन करना मानव एवं उसके पर्यावरण के लिए अत्यन्त हितकर है। आगे, पृथ्वी आदि षट्जीवनिकायों के प्रबन्धन के प्रायोगिक तत्त्वों के विषय में क्रमशः चर्चा की जा रही है। 8.6.1 भूमि-संरक्षण _भूमि का महत्त्व अप्रतिम है, क्योंकि यह जल, वायु, वनस्पति , त्रस आदि प्राणीय जीवन के अनेक रूपों की आश्रय प्रदात्री है। जैनआचारमीमांसा में इसके संरक्षण के लिए अनेक निर्देश दिए गए हैं, जो पर्यावरण-प्रबन्धन के लिए लाभप्रद है। भूमि में विद्यमान जीवन के अस्तित्व को सिद्ध करके भगवान् महावीर ने भूमि के भौतिक के साथ जैविक महत्त्व को भी प्रकट किया। दशवैकालिक ग्रन्थ में भूमि में विद्यमान जीवन-सत्ता के विषय में कहा गया है – 'पुढवी चित्तमंतमक्खाया अणेगजीवा पुढो सत्ता अन्नत्थ सत्थ परिणएणं',153 तो दूसरी जगह यह भी कहा गया है – 'पुढवीकायं विहिंसतो, हिंसई उ तयस्सिए। तसे य विविहे पाणे, चक्खुसे य अचक्खुसे154 - इन दोनों सूत्रों से जैनाचार्यों की भूमि-पर्यावरण सम्बन्धी संवेदनशील-दृष्टि स्पष्ट होती है कि पृथ्वी (भूमि) न केवल स्वयं सजीव है और पृथक्-पृथक् अस्तित्व वाले असंख्य जीवों से युक्त है, बल्कि इसके आश्रित भी दृश्यमान-अदृश्यमान विविध त्रस एवं स्थावर जीव जीते हैं। यदि कोई पृथ्वी या भूमि के जीवों (पृथ्वीकायिक जीवों) की हिंसा अर्थात् भूमि का दोहन-शोषण आदि करता है, तो वह उसके आश्रित जीने वाले असंख्यात जीवों की भी हिंसा करता है। अतः पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा नहीं करनी चाहिए।155 जैन साधु-साध्वियों को इसीलिए निर्देश दिया गया है कि वे मन-वच-तन से पृथ्वी, भित्ति (दरार), शिला, ढेले आदि का भेदन-कुरेदन न करें, न कराएँ और न ही ऐसे कार्यों का समर्थन करें। 156 यह भूमि-संरक्षण के लिए आदर्श-जीवन का स्वरूप है। यह आश्चर्य की बात है कि पृथ्वी के आश्रित जीने वाले अदृश्यमान (इंद्रिय-अगोचर) जीवों के सन्दर्भ में कही गई बातें आज वैज्ञानिक यन्त्रों से भी सिद्ध हो रही हैं। विश्वविख्यात वैज्ञानिक 459 अध्याय 8 : पर्यावरण-प्रबन्धन 35 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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