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________________ आचारों का अनुपालन करना हमारा अनिवार्य कर्त्तव्य है, क्योंकि इनसे ही हम अपनी क्रियाओं का सम्यक् समायोजन कर पर्यावरण-प्रबन्धन के लक्ष्य की पूर्ति कर सकेंगे। यद्यपि हमें अपनी स्थूल दृष्टि से लग सकता है कि 'इससे मुझे क्या मिलेगा, मैं श्रम करूँगा एवं लाभान्वित तो होंगे अन्य' इत्यादि, फिर भी यह दृष्टिकोण सम्यक् नहीं है। जैनाचार्यों ने अपनी पैनी दृष्टि से इस तरह पर्यावरणोपयोगी आचारों का विधान किया है कि उनका पालन करने से अनेक तरह के जीवनोपयोगी लाभ एक साथ ही प्राप्त हो जाते हैं। जिसे हम केवल पर्यावरण के लिए हितकर मानते हैं, परोक्ष रूप से वही आत्महित का मार्ग है। आशय यह है कि हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्मचर्य, परिग्रह आदि पापों का परित्याग न केवल पर्यावरण को सन्तुलित करता है, अपितु आत्म-शान्ति एवं आत्म-कल्याण का भी कारण है, जो सभी के लिए वांछनीय है। जैनाचार्यों ने इन हिंसादि पापों को विष की उपमा देते हुए कहा है - जैसे जीवितार्थी के लिए विष हितकर नहीं होता, वैसे ही कल्याणार्थी के लिए पाप हितकर नहीं होता।86 इतना ही नहीं, पर्यावरण-प्रबन्धन के लिए निर्दिष्ट जैनआचार सिद्धान्तों के अनुपालन से हमें अन्य कई लाभ स्वयमेव अनुभूत होंगे, जैसे - ★ स्वास्थ्य लाभ – प्रदूषण एवं अतिभोग पर रोक लगाने से। ★ आर्थिक लाभ - अल्पसंचय, अल्पव्यय एवं मितव्ययिता से। ★ पुण्य लाभ – हिंसा आदि असत्प्रवृत्तियों में कमी करने से। ★ समय लाभ - अनावश्यक कार्यों पर नियन्त्रण करने से। ★ भावात्मक लाभ – मैत्री, करुणा, सरलता, सहृदयता आदि सात्विक भाव बढ़ने से। ★ प्रतिकूलता में जीने के अभ्यास की अभिवृद्धि का लाभ। ★ भावी पीढ़ी के लिए प्राकृतिक संसाधनों का समुचित संचय एवं संरक्षण। ★ आत्मकल्याण के प्रयत्नों के लिए बाह्य निवृत्ति रूप अवसर की प्राप्ति इत्यादि। यह निष्कर्ष है कि जैनाचार्यों ने आत्मानुशासन के माध्यम से पर्यावरणहित, आर्थिकहित, स्वास्थ्यहित, आत्महित आदि का ऐसा सुसमन्वयन किया है कि यह जन-जन के लिए ग्राह्य है। भगवान् महावीर ने कहा भी है – 'हे मानव! तू स्वयं को अनुशासित कर, तू समस्त दुःखों से मुक्त हो जाएगा। अतः पर्यावरण-प्रबन्धन की प्रक्रिया को व्यर्थ मानने के बजाय जीवन का वैसा ही महत्त्वपूर्ण पक्ष मानना चाहिए, जैसा हम शारीरिक, बौद्धिक, शैक्षिक, आर्थिक, पारिवारिक एवं सामाजिक पक्षों को मानते हैं, क्योंकि इसमें हमारा हित निहित है। 24 जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व 448 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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