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________________ (1992) में हुए सम्मेलन।83 यहाँ यह स्वीकारना आवश्यक होगा कि अनेकानेक सन्धियों, कानूनों, अधिनियमों आदि के बनने पर भी मनुष्य का हृदय-परिवर्तन न होने से वांछित जन-जागरुकता पैदा नहीं हो रही है, जिससे समस्या की विकरालता दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। अतः आवश्यक होगा कि हम जैनआचारशास्त्रों का अनुशीलन करें। इनके सैद्धान्तिक एवं प्रायोगिक पक्षों को क्रमशः जीवन-दृष्टि एवं जीवन-व्यवहार में लाएँ, जिससे पर्यावरण-प्रबन्धन का सपना सचमुच साकार हो सके। जैनधर्म एवं इसमें वर्णित जीवनशैली पर विचार करने से यह स्पष्ट पता चलता है कि इसमें प्राकृतिक पर्यावरण के संरक्षण पर अत्यधिक ध्यान दिया गया है। यह कहना होगा कि यदि पर्यावरण विनाश को रोकना है, तो जैन सिद्धान्तों का अनुकरण हमें करना ही होगा। 8.5.2 जैनआचारमीमांसा में पर्यावरण-प्रबन्धन के सैद्धान्तिक पक्ष लोक में यह कहावत प्रसिद्ध है - जैसी दृष्टि, वैसी सृष्टि। हम जैसा विचार करते हैं, कालान्तर में वैसा ही बन जाते हैं। पर्यावरण-प्रबन्धन के सन्दर्भ में हम इस कथन की उपेक्षा नहीं कर सकते। पर्यावरण की भयावह समस्याओं के सम्यक् नियोजन से पूर्व हमें अपने दृष्टिकोण को सकारात्मक बनाने की आवश्यकता है। जैनआचारमीमांसा के निम्नलिखित सिद्धान्तों को स्वीकारने से हमारी विचारधारा में निश्चित रूप से एक सकारात्मक परिवर्तन आ सकता है, जिसका कालान्तर में अनुपालन कर हम पर्यावरणीय समस्याओं से मुक्ति पा सकते हैं। (1) पर्यावरण-प्रबन्धन सम्बन्धी उद्देश्य बनाना यद्यपि पर्यावरणीय विपदा एक वैश्विक समस्या है, फिर भी इसका समाधान वैयक्तिक सुधार पर ही निर्भर करता है। जैनाचार्यों का अभिमत स्पष्ट है कि 'निज पर शासन, फिर अनुशासन' का सिद्धान्त ही सुधार ला सकता है। सूत्रकृतांग में नकारात्मक सोचने वाले लोगों पर कटाक्ष करते हुए कहा गया है कि जो अपने पर अनुशासन नहीं रख सकता, वह भला दूसरों पर अनुशासन कैसे कर सकता है? अतः हमें उद्देश्य बनाना चाहिए कि पर्यावरण-प्रबन्धन मेरे जीवन-प्रबन्धन का एक महत्त्वपूर्ण अंग है, जो समाज, सरकार और विश्व का नहीं, बल्कि स्वयं मेरा उत्तरदायित्व है। दूसरे शब्दों में, हमें 'Think globally, Act locally' (सोच भूमण्डीय, क्रिया स्थानीय) का मंत्र अपनाना होगा।85 यद्यपि हम पूरे विश्व का पर्यावरण नहीं सुधार सकते, फिर भी हम अपने आसपास के पर्यावरण का बुद्धिमत्तापूर्ण प्रयोग करने के लिए पूर्ण स्वतन्त्र हैं। हमें चाहिए कि व्यक्तिगत तौर पर अपने-अपने क्रियाकलापों को नियोजित करें, जिससे प्राकृतिक संसाधनों का नियंत्रित दोहन हो, संसाधनों का अपव्यय अल्पतम हो, संसाधनों के अनावश्यक उपभोग पर नियन्त्रण हो एवं अपशिष्ट पदार्थों का उचित प्रतिष्ठापन (निःसरण) हो। इसीलिए जैनआचारमीमांसा में निर्दिष्ट अहिंसा, संयम, तप, त्याग, व्रत आदि 22 447 अध्याय 8 : पर्यावरण-प्रबन्धन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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