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________________ अथवा लानीनो प्रभाव (तापमान में अत्यधिक कमी आना) से कई जलीय जीवों की मृत्यु होना । I इस प्रकार, वायु प्रदूषण की समस्या सामान्य नहीं है, बल्कि अतिव्यापक एवं विचारणीय है। यह निष्कर्ष गलत नहीं होगा कि जैनआचार में वायुकायिक जीवों की हिंसा नहीं करने का निर्देश ‘वायु-प्रदूषण' को मर्यादित करने के लिए अत्यन्त आवश्यक है। वायु सम्बन्धी समस्याओं एवं दुष्परिणामों से बचने के लिए आगे चर्चा की जाएगी। 8.3.5 वनस्पति का अतिदोहन (Over Exploitation of Greenery ) 04 तीव्रता बढ़ती जनसंख्या, आर्थिक विकास की अत्यधिक लालसा एवं भोगप्रधान संस्कृति के कारण से मानव वनस्पति का अतिदोहन कर रहा है, जिसका जैन - परम्परा में स्पष्ट निषेध है। वर्त्तमान में खाद्यान्न संकट अधिक होने से कृषि - क्षेत्र और पशु चारागाहों का लगातार विस्तार हो रहा है। औद्योगिक आवश्यकताओं के लिए वनोपज, जैसे फर्नीचर, कागज, वस्त्र, आयुर्वेदिक औषधियों, भवन सामग्रियों आदि की महती माँग है। भारत में लगभग 70% ग्रामीण हैं, जिनके पास घरेलु उपयोग के लिए ऊर्जा का मुख्य स्रोत जलाऊ लकड़ी ही है । वर्त्तमान में खनन उद्योग का भी बोलबाला है। इसके अतिरिक्त सड़क, नवनगरों (Colonies ), रेल, बाँध, नहर आदि के निर्माण में भी असंख्य पेड़ कट रहे हैं। परिणामस्वरूप, प्राकृतिक सन्तुलन ही गड़बड़ा गया है। उपजाऊ भूमि का कटाव, भयंकर भूस्खलन, प्रलयकारी बाढ़ें, भयावह सूखे, पर्यावरण प्रदूषण इत्यादि वन-उन्मूलन का ही परिणाम है। - वनस्पति के अभाव में वर्षा का जल भूमि पर सीधा पड़ने से मृदा - स्खलन भी तीव्रता से होता है। इसके अतिरिक्त जड़ों की अनुपस्थिति में मृदा में बन्धन ( Binding ) नहीं रह पाता, जिससे मृदा—अपरदन (Soil Erosion) बढ़ जाता है। यह मृदा नदियों में जाकर उन्हें मलिन तथा उथला बनाती है। इससे न केवल कृषि पर विपरीत प्रभाव आता है, अपितु बाढ़ की सम्भावना भी बढ़ जाती है। इन बाढ़ों से असंख्य जाने जाती हैं तथा अतुलनीय नुकसान भी होता है। इसी प्रकार, कार्बन-डाई-ऑक्साइड की मात्रा बढ़ जाती है, जिससे वायु प्रदूषण बढ़ता है। वर्षा-प्रक्रिया में मिलने वाली सहायता कम हो जाने से अनावृष्टि और सूखे की समस्या बढ़ती है। वनों की कटाई से भूमि की पकड़ छूटने से भूस्खलन की समस्या बढ़ती है। हवाओं की गति को रोकने वाला अवरोधक न होने से आँधी-तूफान आते हैं। वनों के पत्ते न होने से भूमि को निरन्तर उपजाऊ रखने वाली उर्वरक - शक्ति के अभाव में धीरे-धीरे भूमि बंजर होती जाती है। कालान्तर में वन क्षेत्र रेगिस्तान बन जाते हैं। इस प्रकार, हम पाते हैं कि वनों का अतिदोहन वस्तुतः अपार जनहानि एवं आर्थिक, सांस्कृतिक एवं भौगोलिक पर्यावरण की अपूरणीय क्षति का कारण है। अतः जैनआचारशास्त्रों की अवहेलना न करते हुए वनस्पति के प्रति हमें जड़वत् नहीं, अपितु आत्मवत् व्यवहार करना चाहिए । 441 Jain Education International अध्याय 8 : पर्यावरण-प्रबन्धन For Personal & Private Use Only 17 www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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