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________________ 8.3.6 त्रस जीवों पर संकट मनुष्य, पशु-पक्षी, कीड़े-मकोड़ों आदि का समावेश त्रस जीवों में होता है। आज जहाँ मनुष्यों के साथ जनसंख्या-वृद्धि की समस्या है, वहीं पशु-पक्षी, कीड़े-मकोड़ों के प्रति हिंसक व्यवहार किए जाने के परिणामस्वरूप उनकी प्रजातियों के विलुप्तीकरण की समस्या जुड़ी हुई है। इससे पारिस्थितिक अस्थिरता उत्पन्न हो रही है, जो अवांछनीय एवं घातक है। भगवान् महावीर के सिद्धान्त आज भी प्रासंगिक हैं, जो किसी भी निरपराध त्रस जीव की हिंसा नहीं करने का उत्तम एवं हितकर निर्देश देते हैं | 55 65 (1) मानवीय जनसंख्या - विस्फोट जनसंख्या- विस्फोट के कारण आहार, वस्त्र, जल, आवास, चिकित्सा, शिक्षा आदि की अत्यधिक आवश्यकता पड़ रही है। इनकी पूर्ति के लिए व्यक्ति पृथ्वी, जल, वायु, वन एवं अग्नि का अतिदोहन करता है, जिससे इन संसाधनों की मात्रा एवं गुणवत्ता दोनों में ही कमी आ रही है । आवश्यकता पूर्ति के प्रयासों में कुछ व्यक्ति अतिसफल रहे हैं, तो कुछ विफल भी सिद्ध हुए हैं। इससे मनुष्य में आर्थिक एवं सामाजिक विषमता बढ़ी है। फलस्वरूप, मनुष्यों की परस्पर सौहार्दपूर्ण समरसता घटी है तथा वैमनस्य, युद्ध, विवाद, कलह आदि में वृद्धि हुई है। इससे आध्यात्मिक, सामाजिक, भौतिक आदि सभी पक्षों की हानि हुई है। जैन आचार का अनुपालन हमें मर्यादित एवं आत्म-नियन्त्रित जीवनशैली की शिक्षा देता है। इसमें विहित ब्रह्मचर्य सम्बन्धी मर्यादाएँ हमें भोग - वासनाओं एवं वंश - विस्तार के बजाय आत्मिक गुणों के विकास की दिशा में प्रेरित करती हैं । 66 वस्तुतः, आत्म-संयम से ही जनसंख्या - नियन्त्रण किया जा सकता है। उपासकदशांगसूत्र में कहा गया है कि सद्गृहस्थ को स्वस्त्रीसन्तोषव्रत का पालन करना चाहिए एवं पाँच प्रकार के दोषों से बचना चाहिए, जो इस प्रकार हैं 7 ★ इत्वरपरिगृहीता गमन धन एवं उपहार आदि देकर कुछ काल के लिए किसी स्त्री के साथ पत्नी जैसा व्यवहार करना । ★ अपरिगृहीता गमन वेश्या, परित्यक्ता एवं अनाथ स्त्री को पैसा देकर अपना बना लेना । काम - सेवन के अंगों से भिन्न अंगों के द्वारा मैथुन सेवन करना । अपने परिवार के सदस्यों को छोड़कर अन्यों का विवाह कराना । ★ अनंग क्रीड़ा ★ परविवाहकरण ★ कामभोग तीव्राभिलाषा कामासक्त होकर कामजनक औषधियों का प्रयोग करना और मादक द्रव्यों का सेवन करना । (2) जन्तु - जगत् के संकट वर्त्तमान में औद्योगिक क्षेत्र में पशु-अंगों का उपयोग तेजी से बढ़ रहा है और साथ ही विविध प्रदूषणों की मात्रा में भी तीव्रता से वृद्धि हो रही है। इसके परिणामस्वरूप पारिस्थितिक असन्तुलन पैदा 18 जीवन- प्रबन्धन के तत्त्व 442 Jain Education International - ― - For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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