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________________ पर्यावरण की ज्वलन्त समस्याओं से अवगत होने के पश्चात् इसके विविध घटकों- भूमि, जल. अग्नि, वायु, वनस्पति एवं त्रस जीवों में उत्पन्न हो रही समस्याओं के कारणों एवं दुष्प्रभावों की सिलसिलेवार चर्चा आगे की जा रही है - 8.3.1 भूमि-प्रदूषण (Land or Soil Pollution) ___जैनआचारशास्त्रों में भूमि के उन अर्थहीन प्रयोगों का निषेध किया गया है, जिनसे भूमि की गुणवत्ता को क्षति पहुँचती है, लेकिन वर्तमान में नानाविध रासायनिक पदार्थों, जैसे - खाद, कीटनाशक , अपशिष्ट पदार्थ आदि को भूमि में डालकर उसे विकृत किया जा रहा है। परिणामस्वरूप पेड़-पौधों एवं फसलों का उत्पादन प्रभावित हो रहा है। धीरे-धीरे भूमि बंजर हो रही है, जिससे खाद्यान्न संकट बढ़ रहा है। हरी वनस्पति के अभाव में वर्षा प्रभावित हो रही है, जिससे जल संकट भी बढ़ रहा है। भूमि में नमी कम होती जा रही है, जिससे भूमि-क्षरण भी तेजी से हो रहा है। इसका अतिरिक्त प्रभाव मनुष्यसहित उन असंख्य कीड़े-मकोड़ों, जीव-जन्तुओं पर भी आ रहा है, जो कुपोषण का शिकार होकर नष्ट होते जा रहे हैं। अतः जैन सिद्धान्तों का अनुपालन कर भूमि का मर्यादित प्रयोग करना आज की ज्वलन्त आवश्यकता है। जैनशास्त्रों में खनन व्यापार (फोडी कार्य) का निषेध किया गया है, किन्तु इन दिनों धड़ल्ले से खनन क्रिया करके खनिजों का अतिदोहन किया जा रहा है। इससे भूमि की ऊपरी उपजाऊ परत नष्ट हो रही है, सैकड़ों-हजारों वृक्षों को काटा जा रहा है (वनकर्म) और बड़े-बड़े गड्ढों का निर्माण हो रहा है। इसके अतिरिक्त मजदूरों के रहवास, स्थानीय निवासियों के पुनःस्थापन एवं मलबे के ढेर के लिए आसपास की भूमि प्रदूषित की जा रही है। इतना ही नहीं, खनन क्रिया से भूगर्भ में विद्यमान हानिकारक तत्त्व भी भूतल पर आ रहे हैं, जो जल-प्रदूषण और वायु प्रदूषण फैला रहे हैं। इन सबके परिणामस्वरूप मानव के लिए खाद्यान्न आपूर्ति एवं जल आपूर्ति दिनोंदिन मुश्किल हो रही है एवं अस्वास्थ्यप्रद परिस्थितियाँ निर्मित हो रही हैं। यहाँ जैनआचार का परिपालन करके जीने की अनिवार्य आवश्यकता अपेक्षित है। इसकी विस्तृत चर्चा आगे की जाएगी। 8.3.2 जल-प्रदूषण (Water Pollution) ___ जैन-परम्परा में जल का न्यूनतम उपयोग करते हुए जीवन-यापन करने की प्रेरणा देने के बावजूद भी आज दुनिया में जल का अपव्यय एवं प्रदूषण बढ़ता ही जा रहा है। आर्थिक लोभ की तीव्र लालसा एवं उपभोक्तावादी दृष्टिकोण की प्रमुखता से यह जलीय संकट उत्पन्न हुआ है। मानव की अनियन्त्रित गतिविधियों के कारण बर्फीले पहाड़ एवं ग्लेशियर घट रहे हैं, नदियों का पानी घरेलू औद्योगिक अपशिष्टों अथवा कीटनाशक दवाइयों से युक्त होकर मलिन हो रहा है, समुद्र का खारा पानी विषाक्त हो रहा है, भूमिगत जल का स्तर घट रहा है, उधर आकाश से अम्लीय वर्षा भी हो रही 435 अध्याय 8 : पर्यावरण-प्रबन्धन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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