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गोधन, गजधन, बाजिधन, और रतनधन खान।
जब आवे सन्तोष धन, सब धन धूरि समान ।। 164 (10) अनेकान्त दृष्टि के द्वारा मानसिक-प्रबन्धन - जैनदर्शन का अनेकान्तवाद तनाव-मुक्ति का अचूक उपाय है। जो व्यक्ति इस सिद्धान्त को आत्मसात् कर लेता है, वह न केवल आध्यात्मिक उन्नति के पथ पर अग्रसर होता है, अपितु सामाजिक एवं पारिवारिक क्षेत्र में भी वैचारिक-सहिष्णुता के साथ जीता है। यह अनाग्रह की कला सिखाता है, जिससे एक-दूसरे के विचारों में संघर्ष नहीं, अपितु समन्वय हो जाता है। (11) आत्मज्ञान के द्वारा मानसिक-प्रबन्धन – जब तक इस जड़ शरीर से भिन्न आत्म-स्वरूप का भान नहीं होता, तब तक मानसिक विकारों का स्थायी निराकरण नहीं हो सकता, किन्तु जब आत्मज्ञान हो जाता है, तब स्वतः ही पर-पदार्थों एवं उनके प्रति ममत्व भावों का विसर्जन होने लगता है। इसीलिए कहा गया है कि आत्मा से अनभिज्ञ रहकर अनेक दुःख प्राप्त होते हैं और आत्मज्ञान की प्राप्ति होने पर वे विनष्ट हो जाते हैं।165 (12) आत्मदायित्व के बोध द्वारा मानसिक-प्रबन्धन - जब तक व्यक्ति बाह्य परिस्थितियों को सुख-दुःख का कारण मानता रहता है, तब तक परिस्थितियों को बदलने की व्यर्थ ही चेष्टा करता रहता है, किन्तु जैनदर्शन मूलतः आत्मा को ही सुख-दुःख का कर्ता मानता है। 166 अतः इससे आत्मदायित्व का बोध होता है और व्यक्ति अपनी मनोवृत्तियों को नियंत्रित कर हर परिस्थिति में आनन्दपूर्वक जीता है। (13) व्रतों द्वारा मानसिक-प्रबन्धन – हिंसादि दुष्प्रवृत्तियों से विरत होना ही व्रत है।67 यह व्रत श्रमण एवं श्रावक दोनों के द्वारा पालनीय है। जो व्यक्ति इन व्रतों का पालन भावपूर्वक करता है, उसकी सांसारिक दुष्प्रवृत्तियाँ सीमित/समाप्त हो जाती हैं, जिससे वह अनेक प्रकार के मानसिक त्रास एवं सन्ताप से मुक्त हो जाता है। जो सुख अपार ऐश्वर्य से भी अप्राप्य है, वह सुख व्रतधारियों को सहज ही प्राप्त हो जाता है।
__इस प्रकार, जैनदर्शन में मानसिक-प्रबन्धन के लिए अनेकानेक ज्ञानात्मक एवं क्रियात्मक पद्धतियाँ निर्दिष्ट हैं। इनका सम्यक् प्रयोग कर साधक अपने अज्ञान को दूर करके कषायरूपी मनोविकारों पर विजय प्राप्त कर सकता है। प्रत्येक जीवन-प्रबन्धक का यह कर्त्तव्य है कि वह क्रोध, मान, माया और लोभ को क्रमशः क्षमा, मृदुता, सरलता एवं सन्तोष के द्वारा जीतने का प्रयास करे।168
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जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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