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________________ है और उसका मन शान्त एवं प्रबन्धित होता है। (5) प्रायश्चित्त द्वारा मानसिक-प्रबन्धन – 'प्रायः' का अर्थ है - अपराध और 'चित्त' का अर्थ है - शुद्धि। 160 अतः अपने अपराधों की शुद्धि करना ही प्रायश्चित्त है। यह आभ्यन्तर तपों में सबसे प्रथम तप है तथा तनाव-मुक्ति के लिए अनिवार्य साधन है, क्योंकि मनुष्य के लिए गलती करना एक आम बात है और प्रायश्चित्त तप के द्वारा ही इस गलती की स्वीकृति एवं शुद्धि सम्भव है, अतः प्रायश्चित्त आत्म-परिष्कार की प्रक्रिया का प्रवेश द्वार है। (6) आलोचना, प्रतिक्रमण तथा प्रत्याख्यान द्वारा मानसिक-प्रबन्धन – मन को खाली करना ही मानसिक शान्ति का साधन है और इस हेतु इन तीनों की विशिष्ट भूमिका है। यहाँ अतीत के राग-द्वेष एवं ममत्व को छोड़ना 'प्रतिक्रमण' है, वर्तमान के दोषों को त्यागना 'आलोचना' है एवं आगामी राग-द्वेष एवं ममत्व का संकल्पपूर्वक परित्याग करना 'प्रत्याख्यान' है। 61 जैन–परम्परा में इन्हें प्रायश्चित्त का एक अंग तथा साधु एवं श्रावक का दैनिक कर्त्तव्य माना गया है। कहा भी गया है कि जो साधक गुरु के समक्ष अपने मानसिक शल्यों (काँटों) को निकालकर आलोचना (निन्दा) करता है, उसकी आत्मा का भार उसी तरह हल्का हो जाता है, जिस प्रकार सिर का भार उतरने पर व्यक्ति का। 162 ईसाई धर्म में जिस प्रकार कन्फेशन (Confession) की परम्परा है, जैनधर्म में उसी प्रकार उपर्युक्त आलोचना आदि की प्रक्रिया है। (7) परमात्म-भक्ति के द्वारा मानसिक-प्रबन्धन - भक्ति का अर्थ है - समर्पण। सच्चे मन से भक्ति की जाए, तो यह भगवत्-प्राप्ति का मार्ग है और परमानन्द के ऐश्वर्य को देने वाली है। इसके अनेक अंग हैं - दर्शन, वन्दन, अर्चन, कीर्तन, सेवन, पूजन आदि। निश्चित तौर पर यह राग-द्वेष को समाप्त कर मानसिक तोष एवं प्रसन्नता रूपी फल की प्राप्ति कराने वाली है। चित्त प्रसन्ने रे पूजन फल कह्यु, पूजा अखण्डित एह। कपट रहित थइ आतम अर्पणा, आनन्दघन पद रेह।। 163 (8) अहिंसा द्वारा मानसिक-प्रबन्धन – जहाँ हिंसा है, वहाँ क्लेश, कलह, वैर, वैमनस्य, कटुता और द्वन्द्व हैं और जहाँ अहिंसा है, वहाँ प्रेम, स्नेह, शान्ति, दया, सह-अस्तित्व, सहिष्णुता एवं करुणा हैं। अतः जैन-परम्परा में अहिंसा को अत्यधिक महत्त्व दिया गया है। तनाव-मुक्ति के लिए अहिंसात्मक जीवनशैली से जीना प्रत्येक जीवन-प्रबन्धक का कर्त्तव्य है। (७) अपरिग्रह द्वारा मानसिक-प्रबन्धन - जैनदर्शन का महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है - अपरिग्रह। अपरिग्रह की भावना जितनी प्रबल होती जाती है, तृष्णा उतनी ही शान्त होती जाती है, जिससे सन्तोष प्राप्त होता है और तनाव-मुक्ति का अनुभव होता है। 411 अध्याय 7 : तनाव एवं मानसिक विकारों का प्रबन्धन 49 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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