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रहते हैं, वे सभी संज्ञा रूप ही हैं और जैसे ही बाहर में योग्य परिस्थितियाँ प्राप्त होती हैं, ये संज्ञाएँ इच्छा और वांछा का रूप बनाकर उद्दीप्त हो जाती हैं। इन्हें समझ पाना आसान नहीं है, क्योंकि ये सूक्ष्म शल्य (काँटें) के समान होती हैं।
जैनाचार्यों ने इन गहन मानसिक विकारों से मुक्ति पाने के लिए अनेक सिद्धान्तों एवं प्रयोगों का प्रतिपादन किया है। साथ ही, यह निर्देश भी दिया है कि प्रत्येक जीवन-प्रबन्धक अपनी भूमिकानुसार इन्हें आत्मसात् करे। मानसिक-प्रबन्धन के परिप्रेक्ष्य में इन्हें निम्न प्रकार से समझा जा सकता है - (1) समता द्वारा तनाव-मुक्ति - जैनदृष्टि में मनुष्य को लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, जीवन-मरण, निन्दा-प्रशंसा और मान-अपमान में समभाव रखना चाहिए।155 जो इस प्रकार समता की साधना करता है, उसके राग-द्वेष दूर होने लगते हैं तथा वह तनावरहित होकर प्रसन्नता एवं आनन्द का अनुभव करता है। (2) ध्यान द्वारा तनाव-मुक्ति - ध्यान से व्यक्ति विषय-कषायों को मन्द करता है, मन-वचन-काया की प्रवृत्तियों को विश्राम देता है, श्वास को सहज एवं नियमित करता है, एकाग्रता की प्राप्ति करता है तथा समाधि-सुख का अनुभव करता है। निश्चित है कि तनाव-मुक्ति के लिए ध्यान एक श्रेष्ठ साधन है। कहा भी गया है - जिसका मन ध्यान में लीन है, वह कषाय से उत्पन्न ईर्ष्या , विषाद, शोकादि मानसिक दुःखों से पीड़ित नहीं होता।156 (3) कायोत्सर्ग द्वारा मानसिक-प्रबन्धन - कायोत्सर्ग का अर्थ है – काया के ममत्व का विसर्जन। इससे न केवल शरीर को विश्राम मिलता है, अपितु मानसिक बोझ भी हल्का होता है। मनोवैज्ञानिक चार्ल्सवर्थ एवं नाथन ने भी कायोत्सर्ग को तनाव-मुक्ति का एक महत्त्वपूर्ण प्रयोग बताया है। 157 जैन-परम्परा में आचार्य भद्रबाहु ने भी कायोत्सर्ग के पाँच लाभ बताए हैं, जो इस प्रकार हैं158 -
1) देहजाड्य शुद्धि , श्लेष्म (कफ) आदि दोषों के क्षीण होने से देह की जड़ता नष्ट होती है। 2) मतिजाड्य शुद्धि जागरुकता के कारण बुद्धि की जड़ता नष्ट होती है। ३) सुख-दुःख तितिक्षा सुख-दुःख सहने की शक्ति का विकास होता है। 4) अनुप्रेक्षा
भावनाओं (चिन्तन-मनन) के लिए चित्त की एकाग्रता प्राप्त होती है। 5) एकाग्रता र शुभ ध्यान के लिए चित्त की एकाग्रता प्राप्त होती है।
(4) स्वाध्याय द्वारा मानसिक-प्रबन्धन - स्वाध्याय का अर्थ है - सत्साहित्य या सत्संग के द्वारा स्वविषयक अध्ययन करना। यह परम तप है, क्योंकि इसके समान दूसरा तप न अतीत में हुआ है, न वर्तमान में है और न ही अनागत में होगा। 159 नित्य स्वाध्याय (स्व का अध्ययन) करने से हित-अहित का सम्यग्ज्ञान प्राप्त होता है, जिससे व्यक्ति दुराचार से दूर होकर सदाचार में प्रवृत्त होता 48
जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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