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________________ 7.7 मानसिक-प्रबन्धन का प्रायोगिक पक्ष आज व्यक्ति शरीर एवं अन्य विषयों के प्रति जितना जाग्रत है, उतना मन के प्रति नहीं। वह मन की उपेक्षा करके भौतिक उन्नति करने में रात-दिन परिश्रम करता रहता है, फलस्वरूप वह मानसिक रूप से अस्वस्थ होकर जीवन को दुःख, अशान्ति, सन्ताप एवं क्लेश के साथ बिताता है। इसीलिए न केवल जैनाचार्यों ने, अपितु सभी भारतीय मनीषियों ने इस विसंगति को दूर करने के लिए अर्थ एवं काम के साथ धर्म का समन्वय करने का निर्देश दिया है। जो व्यक्ति मानसिक-प्रबन्धन करने का इच्छुक हो, उसे जैन-पद्धति से इस प्रकार क्रमशः प्रयत्न करना चाहिए - ★ तनावों एवं मनोविकारों को महारोग के समान मानना। ★ इनसे निवृत्ति की प्रबल भावना रखना। ★ इनके लिए अन्य को नहीं, अपितु स्वयं को जिम्मेदार ठहराना। ★ इनसे पूर्ण निवृत्ति का लक्ष्य बनाना। ★ लक्ष्य प्राप्ति के लिए योग्य साधनों (सुदेव-सुगुरु-सुधर्म) का आश्रय लेना। ★ बाधक कारणों (कुदेव-कुगुरु-कुधर्म) से दूर रहना। ★ साधक कारणों का उचित समय पर उचित प्रयोग करना। ★ मानसिक सुख, शान्ति एवं आध्यात्मिक आनन्द से युक्त जीवन-यापन करना। ★ साधना के द्वारा मानसिक अस्वस्थता से क्रमशः मुक्त होते जाना। ★ जीवन में प्रसन्नता एवं आनन्द की अभिवृद्धि करते रहना। ★ जीवन में रोग, शोक, भय, दुःखादि की परिस्थिति मिलने पर भी आत्म-विश्वास (Self Confidence) नहीं खोना। ★ उपर्युक्त रोगादि जटिल परिस्थितियों में भी तनाव-मुक्ति का अभ्यास करना। ★ मृत्यु के समय शरीर भले ही अस्वस्थ हो, किन्तु चित्त की स्वस्थता (समाधि) बनाए रखना। स्थानांगसूत्र में मन की तीन अवस्थाएँ वर्णित हैं154 – पहली 'तन्मन' है, जिसमें मन लक्ष्य में लीन रहता है, दूसरी 'तदन्यमन' है, जिसमें मन अलक्ष्य में लीन रहता है और तीसरा 'नोअमन' है, जिसमें मन लक्ष्यहीन कार्य करता है। मानसिक-प्रबन्धन के लिए व्यक्ति को उचित लक्ष्य में मन को लगाकर लक्ष्यहीन अथवा अनुचित लक्ष्य सम्बन्धी प्रवृत्तियों से बचना चाहिए। यह तथ्य उपर्युक्त तेरह बिन्दुओं से स्पष्ट है। 7.7.1 मानसिक-प्रबन्धन का मौलिक रूप मानसिक विकार प्रत्येक प्राणी में होते हैं। ये संज्ञाओं के रूप में रहते हैं एवं कषायों के रूप में अभिव्यक्त होते हैं। संज्ञाएँ अनेक हैं, जैसे - आहार, भय, मैथुन, परिग्रह। वस्तुतः, ये तो संज्ञाओं के स्थूल रूप हैं, सूक्ष्म रूप में इनके असंख्य भेद भी सम्भव हैं। जो मनोभाव लम्बे काल से भीतर दबे हुए 409 अध्याय 7 : तनाव एवं मानसिक विकारों का प्रबन्धन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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