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________________ ★ जीवन-व्यवहार के सम्बन्ध में प्रत्येक निर्णय विवेकपूर्वक लेना। ★ मादक द्रव्यों एवं अन्य व्यसनों के सेवन से दूर रहना। ★ प्रत्येक कार्य को एकाग्रतापूर्वक करना। ★ अनावश्यक विषयों का अंतरंग भावों से त्याग कर समय की बर्बादी से बचना। ★ तनावजन्य मनोविकारों एवं शारीरिक रोगों से बचना। ★ आध्यात्मिक विकास की पात्रता प्राप्त करना। ★ पापकर्मों का त्याग कर तज्जन्य दुर्गतियों से बचना। * मानसिक क्षमता का सृजनात्मक (Constructive) व रचनात्मक (Creative) संप्रयोग करना। इस प्रकार, मानसिक-प्रबन्धन जीवनशैली का सम्यक् जीर्णोद्धार करने की प्रक्रिया है। जैनाचार्यों ने तो पूर्ण मानसिक-प्रबन्धन रूप वीतराग दशा को ही मनुष्य जीवन का सर्वोच्च लाभ बताया है। इस दशा को पूर्ण आरोग्य दशा के रूप में प्रतिपादित किया है।149 उनका कहना है कि 'कषाय मुक्तिः किल मुक्तिरेव'150 अर्थात् कषायों से मुक्त होना (छूटना) ही वास्तव में कर्म, जन्म-मरण एवं समस्त दुःखों से मुक्ति है। अत: मानसिक-प्रबन्धन जीवन के आध्यात्मिक एवं व्यावहारिक विकास के लिए नितान्त आवश्यक है। 7.6.2 मानसिक-प्रबन्धन के साधक एवं बाधक कारण मानसिक-प्रबन्धन की सफलता के लिए इसके साधक कारणों को स्वीकारना तथा बाधक कारणों को नकारना अनिवार्य है। यह मन चूँकि अत्यन्त उद्दण्ड अश्व के समान अनियंत्रित है, अतः उसके नियंत्रण हेतु जैनधर्मदर्शन में धर्म-शिक्षा (धर्माभ्यास) रूपी लगाम का प्रयोग करने151 तथा मन को मलिन करने वाले कारकों (अधर्म) से दूर रहने का निर्देश दिया गया है। 152 ★ साधक कारण - शुभ-संकल्प, प्रार्थना, पूजा, तीर्थयात्रा, प्रायश्चित्त, स्वाध्याय , ध्यान, माला, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग, तप-जप, सामायिक आदि। ★ बाधक कारण - दुर्जनों की संगति, दुर्व्यसन, तामसिक एवं हिंसक आहार, मनोरंजन के अनुचित साधन, भोगमय जीवनशैली, क्लेश-कलह युक्त वातावरण आदि । संक्षिप्त में, जो साधन साध्य की प्राप्ति में सहायक हों, जिनसे राग-द्वेष, मोह मन्द होते हों, मानसिक शान्ति एवं प्रसन्नता का अनभव होता हो. वे साधक कारण हैं। इनसे विपरीत साधनों को बाधक कारण समझना चाहिए। जैनाचार्यों ने इसीलिए कहा है कि जो द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव मानसिक-प्रबन्धन के लिए अनुकूल (हितकारी) हों, वे आश्रय लेने योग्य हैं तथा जो विघ्नकारी हों, वे त्याग करने योग्य हैं। यदि उचित साधन अप्रिय भी लगते हों, तो भी उनका आलम्बन लेना चाहिए तथा मन को प्रिय लगने पर भी जो साधन अनुचित हों, उनका त्याग करना चाहिए।153 =====4.>===== जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व 46 408 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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