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(क) स्वीकारात्मक तनाव - वह तनाव, जिसमें अनुकूल घटना या परिस्थिति के प्राप्त होने पर व्यक्ति सुख का अनुभव करता है, स्वीकारात्मक तनाव कहलाता है, जैसे - लॉटरी खुलना, नौकरी लगना, विवाह होना, लाभ होना, मनोरंजन करना, सम्मान मिलना, घूमने-फिरने जाना, पदोन्नति होना, कामभोग करना आदि-आदि।
इसे सामान्यतया तनाव नहीं माना जाता, किन्तु आधुनिक मनोवैज्ञानिक हेंस सेली (Hans Selye)" आदि ने इसे भी तनाव के रूप में स्वीकार किया है। यद्यपि इसे बाह्य दृष्टि से अच्छे तनाव के रूप में देखा जाता है, क्योंकि इसमें अशान्ति, भय, चिन्ता आदि नहीं, अपितु खुशी और रोमांच का अनुभव होता है, फिर भी जैनदृष्टि से यह तनाव हितकर नहीं है।
यह तनाव रागात्मक वृत्तियों का पोषक होता है एवं जैसे-जैसे इसकी तीव्रता बढ़ती है, वैसे-वैसे कषायों की विशेष अभिवृद्धि होती जाती है। यह तनाव रौद्रध्यान का रूप धारण कर लेता है और पापकर्मों के बन्ध का कारण बनता है। 8,79
क
स्वीकारात्मक
तनाव
हिंसानन्दी – हिंसा में आनन्दित होना मृषानन्दी - झूठ में आनन्दित होना । चौर्यानन्दी - चोरी में आनन्दित होना परिग्रहानन्दी -संग्रह करके आनन्दित होना
(*अतितीव्र रौद्रध्यान की अपेक्षा से नरक, तीव्र की अपेक्षा से तिर्यंच, मन्द की
अपेक्षा से मनुष्य एवं अतिमन्द से देवगति की प्राप्ति होती है।)
यद्यपि आधुनिक मनोविज्ञान की दृष्टि से इसे सुखद तनाव (Eustress) कहा जाता है, लेकिन जैनदृष्टि से यह कामभोगादि से उत्पन्न तनाव भी दुःखद ही है, क्योंकि यह क्षणभर के लिए सुख देकर चिरकाल तक दुःख ही दुःख देता है। जिससे अधिक दुःख और थोड़ा सुख मिले, वह न तो हितकर हो सकता है और न ही प्रियकर। वस्तुतः, वह सुख भी सुख नहीं है, जो अन्ततः दुःख रूप में परिणत हो जाए। जैनाचार्यों ने इस हर्ष-जनित सुख के बजाय समता-जनित सुख को ही उचित बताया है। (ख) नकारात्मक तनाव – वह तनाव, जिसमें प्रतिकूल घटना या परिस्थिति के मिलने पर व्यक्ति दुःख एवं कष्ट का अनुभव करता है, नकारात्मक तनाव कहलाता है, जैसे – प्रियजनों की मृत्यु होना, व्यापार में नुकसान होना, स्पर्धा में हारना, प्राकृतिक प्रकोप होना, शारीरिक अस्वस्थता होना, अपमान होना आदि-आदि।
इसे न केवल जैनाचार्यों ने, अपितु आधुनिक मनोवैज्ञानिकों ने भी नकारा है। इससे व्यक्ति की मानसिक शान्ति एवं स्थिरता तरन्त भंग हो जाती है तथा शरीर पर दुष्प्रभाव भी पड़ता है।
यह द्वेषात्मक वृत्तियों का पोषक है और क्रोध, मान, भय, अरति, शोक, निराशा, कुण्ठा आदि
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जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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