SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 463
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इसमें तरतमता की दृष्टि से अनेक भेद हो सकते हैं, लेकिन स्थूल रूप से इस अवस्था के दो प्रकार (1) प्रशस्त तनाव (Auspicious Stress) (2) अप्रशस्त तनाव (Non-auspicious Stress) (1) प्रशस्त तनाव (Auspicious Stress) – वह तनाव, जो जीवन में राग-द्वेष की वृत्ति को मन्द करता है और वर्तमान एवं भावी जीवन को सुख–शान्तिमय बनाता है, उसे प्रशस्त तनाव कहना चाहिए। यह तनाव जीवन विकास हेतु आवश्यक है, क्योंकि इससे व्यक्ति को अपने दायित्वों के उचित निर्वाह करने की अभिप्रेरणा (Motivation) मिलती है और वह अर्थ एवं भोग सम्बन्धी प्रयत्नों को करता हुआ धर्म एवं मोक्ष सम्बन्धी प्रयत्नों का उचित समन्वय कर लेता है। (2) अप्रशस्त तनाव (Non-auspicious Stress) - वह तनाव, जो जीवन में राग-द्वेष की अभिवृद्धि करता है और वर्तमान एवं भावी जीवन को दुःख और सन्ताप से पीड़ित करता है, उसे अप्रशस्त तनाव कहना चाहिए। जैन विचारणा के अनुसार, यह तनाव अनावश्यक है और आत्म-पतन की ओर धकेलने वाला है। इससे प्रेरित होकर व्यक्ति अनैतिक प्रवृत्तियों, जैसे - क्लेश-कलह, लड़ाई-झगड़ा, गाली-गलौज आदि में प्रवृत्त हो जाता है अथवा अर्थ और भोग के अतिरेक में फँसकर धर्म और मोक्ष के प्रयत्नों से विमुख हो जाता है। यद्यपि आधुनिक मनोवैज्ञानिकों की दृष्टि में न तो पूर्ण तनावरहित जीवन की कल्पना की जा सकती है और न ही प्रशस्त-तनाव की उपयोगिता का बोध, तथापि जैनाचार्यों ने सदैव ही प्रशस्त तनाव को माध्यम बनाकर अप्रशस्त तनाव से मुक्त होने एवं अन्ततः परिपूर्ण तनावरहित अवस्था की प्राप्ति करने को जीवन–प्रबन्धन का लक्ष्य बताया है। कहा भी है - अप्रशस्तता रे टाली प्रशस्तता, करता आसव नाशेजी। संवर वाधे रे साधे निर्जरा, आतम भाव प्रकाशे जी।। अर्थात् अप्रशस्त भावों को टाल कर प्रशस्त भाव करना चाहिए, जिससे दुःखदायी अवस्था का नाश हो एवं सुखदायी अवस्था की वृद्धि हो और अन्ततः पूर्ण दुःखरहित आत्मभावों की अभिव्यक्ति हो। प्रत्येक जीवन-प्रबन्धक का यह कर्त्तव्य है कि वह प्रशस्त तनाव को जाग्रत करने वाले सत्संग, सद्विचार एवं सत्कर्म के प्रति रुचि तथा निष्ठा उत्पन्न करे और साथ ही अप्रशस्त तनाव के प्रेरक कारकों से दूर रहे। यह ज्ञातव्य है कि प्रशस्त तनाव वस्तुतः तनाव-मुक्ति का साधन है, जबकि अप्रशस्त तनाव तनाव-वृद्धि का। अप्रशस्त तनाव को ही आज तनाव के रुप में पहचाना जा रहा है। जैन एवं आधुनिक मनोविज्ञान की दृष्टि से इसके दो भेद हैं - क) स्वीकारात्मक तनाव (Positive Stress) ख) नकारात्मक तनाव (Negative Stress)। 381 अध्याय 7 : तनाव एवं मानसिक विकारों का प्रबन्धन 19 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy