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6.6.6 वचन-गुप्ति (मौन)
पूर्व चर्चा से यह स्पष्ट है कि हित-मित-प्रिय और निर्दोष वाणी जीवन जीने की सुन्दर कला है। यह हमारे व्यक्तित्व को निखारती है। साधारण रूप-रंग-आकृति वाला व्यक्ति भी अपनी वाग्मिता (वचन–समिति) से कइयों को अपने अनुकूल बना सकता है। आगे, हम इस विषय पर चर्चा कर रहे हैं कि जैसे जीवन में वचन–समिति (भाषा–समिति) का विशिष्ट महत्त्व है, वैसे ही वचन-गुप्ति (भाषा-गुप्ति) अर्थात् मौन का भी अपना स्थान है। प्रश्न उठता है कि वचन-गुप्ति क्या है? वचन-गुप्ति का अर्थ है – 'वचन का गुप्त हो जाना' अर्थात् व्यक्ति का अभाषक' हो जाना। आचार्य हेमचन्द्र ने इसे परिभाषित करते हुए कहा है166 – विषयाभिलाषा रूप संज्ञाओं आदि से मुक्त होकर मौन धारण करना यानि वचन की प्रवृत्ति को रोकना 'वचन-गुप्ति' है।
संज्ञादि - परिहारेण, यन्मौनस्या - ऽवलम्बनम् ।
वाग्वृत्तेः संवृत्तिर्वा या, सा वाग्गुप्तिरिहोच्यते।। आधुनिक युग में अर्थ और प्रतिष्ठा की अन्धी दौड़ में व्यक्ति अनेक भाषाओं पर अपना अधिकार स्थापित करना चाहता है। वह अंग्रेजी, हिन्दी, फ्रेंच, जर्मन, रूसी, मराठी, गुजराती, तेलगु आदि अनेकानेक भाषाओं का ज्ञान प्राप्त करने को अपने व्यक्तित्व विकास का मापदण्ड मानता है, किन्तु केवल भाषायी ज्ञान ही पर्याप्त नहीं होता। वस्तुतः, जैनदर्शन में वचन–समिति एवं वचन-गुप्ति की कला के विकास को ही वाणी सम्बन्धी व्यक्तित्व-विकास का वास्तविक मानदण्ड माना गया है।।
यह महसूस हो सकता है कि वचन–समिति और वचन-गुप्ति तो परस्पर विरोधी हैं। एक का विषय ‘बोलना' है, तो दूसरे का ‘मौन रहना'। तब आखिर, व्यक्ति को वचन–समिति का पालन करना चाहिए या वचन-गुप्ति का? दोनों में से क्या उचित है और क्या उपादेय है? इस बारे में जैनाचार्यों का दृष्टिकोण अनेकान्तवाद पर आधारित है, उनकी दृष्टि में दोनों की जीवन में आवश्यकता है। केवल बोलना अथवा केवल मौन रहना ही समस्याओं का समाधान नहीं है। जब बोलना अपरिहार्य हो, तब बोलना चाहिए और जब मौन आवश्यक हो, तब मौन भी रहना चाहिए। यह विशेष है कि बोलते समय वचन-समिति का पालन करना चाहिए और मौन के समय वचन-गुप्ति का। यदि वचन–समिति से कब, कितना और कैसे बोलने का विवेक प्राप्त होता है, तो वचन-गुप्ति से यह निर्णय होता है कि प्रसंगविशेष में बोलना उचित भी है या नहीं? दूसरे शब्दों में, यदि आवश्यकता नहीं है, तो नहीं बोलना, यह वचन-गुप्ति का मूल है और आवश्यकता हो, तो अवश्य बोलना, लेकिन आवश्यकतानुसार ही बोलना, यह वचन-समिति का मूल है। इस प्रकार, व्यक्ति को जीवन में बोलने एवं मौन रहने दोनों की ही आवश्यकता है, जिसका निर्णय देश, काल एवं परिस्थिति के आधार पर होना चाहिए।
___'कब वचन-गुप्ति का प्रयोग करना और कब वचन–समिति का' यह भी एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है। कई बार जहाँ बोलना चाहिए, वहाँ व्यक्ति मौन हो जाता है और जहाँ उसे मौन रहना चाहिए, वहाँ मुखर। इससे उसके जीवन में कभी-कभी असन्तुलन भी पैदा हो जाता है, जिसे दूर करने के लिए
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जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व
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