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उसे वचन-गुप्ति और वचन-समिति के समयानुकूल प्रयोग का विवेक विकसित करना आवश्यक है। यदि वह जीवन की सामाजिक एवं वैयक्तिक वृत्तियों को ध्यान में रखकर वचन-गुप्ति एवं वचन–समिति का पालन करे, तो इस विवेक का विकास आसानी से हो सकता है।
आचार्य महाप्रज्ञजी के अनुसार, व्यक्ति व्यक्ति भी है और सामाजिक प्राणी भी। किसी दृष्टि से सामाजिक होना उसके लिए अनिवार्य भी है। वह अपने जीवन की आवश्यकताओं एवं सुविधाओं की पूर्ति के लिए समाज पर ही आश्रित है। अतः उसे समाज के सदस्यों के साथ सम्पर्क स्थापित करना ही होता है और जहाँ सम्पर्क स्थापित करना हो, वहाँ सम्प्रेषण (Communication) आवश्यक हो जाता है। उसका सम्प्रेषण तभी प्रभावशाली हो सकता है, जब वह हित, मित, प्रिय एवं निर्दोष वाणी का उचित एवं समयानुकूल प्रयोग करे। अतः यह कहना होगा कि सामाजिक जीवन की सफलता के लिए वचन–समिति का प्रयोग करना व्यक्ति का एक आवश्यक कर्तव्य है।
जीवन का दूसरा पक्ष है-वैयक्तिक जीवन। सामाजिक जीवन की तरह वैयक्तिक जीवन का भी अपना महत्त्व है। यद्यपि सामाजिक होना व्यक्ति के विकास का आधार है, फिर भी सामाजिक जीवन में कुछ सुविधाएँ हैं, तो कुछ समस्याएँ भी, जिनका निराकरण वैयक्तिक जीवन की सम्यक् नीतियों के माध्यम से किया जा सकता है। वस्तुतः, समाज विभिन्न विचारधाराओं वाले व्यक्तियों का समूह है, कहा भी जाता है - 'मुण्डे-मुण्डे मतिर्भिन्ना' अर्थात् जितने मुँह , उतनी बातें। यह स्वाभाविक है कि जितनी बातें होंगी, उतनी ही समस्याएँ भी उत्पन्न होंगी। वर्तमान में सामाजिक जीवन में ये समस्याएँ क्लेश-कलह, वैर-विरोध, संघर्ष-चिन्ताएँ, अपेक्षाएँ-दुराग्रह आदि की परिस्थितियों के रूप में सामने आ रही हैं। ये समस्याएँ व्यक्ति में तनाव (Stress), थकान (Fatigue) एवं अवसाद (Depression) उत्पन्न कर रही हैं। इनसे बचने का एक ही सूत्र है – व्यक्ति केवल सामाजिक बनकर ही न जिए, अपितु सामाजिक जीवन के साथ-साथ वैयक्तिक जीवन भी जिए।168
वैयक्तिक जीवन का अर्थ स्वार्थपूर्ण जीवन नहीं, अपितु अनावश्यक सम्बन्धों से निवृत्त होने से है। यह स्थिति वचन-गुप्ति से प्राप्त हो सकती है। वचन-गुप्ति से व्यक्ति सिर्फ व्यक्ति बनकर जीता है, वह अभाषी हो जाता है। उसकी सुप्त ऊर्जा पुनः प्रकट हो जाती है और उसकी निर्भारता में अनुक्रम से अभिवृद्धि होती चली जाती है। इस प्रकार, वैयक्तिक जीवन की सफलता के लिए सम्यक् वचन गुप्ति (मौन) का प्रयोग करना भी व्यक्ति का एक आवश्यक कर्त्तव्य है।169 संक्षेप में कहा जा सकता है कि जब सामाजिक जीवन जीना हो, तब भाषा-समिति का पालन करना चाहिए और जब वैयक्तिक जीवन जीना हो, तब भाषा-गुप्ति की साधना करनी चाहिए, यह व्यावहारिक जीवन में सन्तुलन का मार्ग है और सम्यक् वाणी-विवेक का लक्षण भी।
कई प्रसंगों में व्यक्ति मौन तो हो जाता है, लेकिन उसके विचारों की श्रृंखला तीव्र गति से चलती ही रहती है। मन में बोलने के विचार तो खूब उठते हैं, लेकिन व्यक्ति उन्हें जबरदस्ती रोककर संकेत, इशारे या हुँकारे करता रहता है। वास्तव में, यह मौन का सम्यक् स्वरूप नहीं है।170 343
अध्याय 6 : अभिव्यक्ति-प्रबन्धन
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