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________________ व्यक्ति को चाहिए कि उपर्युक्त विश्लेषण के आधार पर वह मृषावाद के सेवन का सर्वथा त्याग करे। मेरी दृष्टि में, निम्नलिखित कारकों के आधार पर भी मृषावाद का विश्लेषण किया जा सकता मृषावाद का निषेध त्रियोगपूर्वक निषेध त्रिकरणपूर्वक निषेध । त्रिकालपूर्वक निषेध कषायों का निषेध मन वचन काया करने कराने अनुमोदन करने अतीत सम्बन्धी वर्तमान सम्बन्धी भविष्य सम्बन्धी क्रोध मान माया लोभ इस प्रका विश्लेषण के आधार पर 3 x 3 x 3x4 = 108 भेदों से मुषावाद का निषेध करके ही पूर्णतया सत्यमय जीवन जिया जा सकता है। विस्तार-रुचि वाले व्यक्ति संक्षेप में तत्त्व के तथ्य को नहीं पहचान पाते। अतः उनके स्पष्टीकरण के लिए एक अन्य दृष्टिकोण से कहा जा सकता है कि प्रमादयुक्त कहा गया सत्यरहित एवं परपीड़ाकारी वचन मृषावाद ही है। यह ज्ञातव्य है कि आत्मा की आत्मा के प्रति अजागरुकता को ही जैनदर्शन में 'प्रमाद' कहा गया है, जो पाँचों इंद्रियों के विषयों में आसक्ति, चारों प्रकार की कषाय, चारों प्रकार की विकथाएँ, निद्रा एवं स्नेह – इन पंद्रह रूपों में विद्यमान रहता है। दशवैकालिकसूत्र के चूर्णिकार के ये विचार विशेष चिन्तनीय हैं - 'सत्य या असत्य किसी भी भाषा के बोलने पर यदि चारित्र की शुद्धि होती हो, तो वह सत्य ही है और यदि चारित्र की शुद्धि नहीं होती हो, तो वह असत्य ही है। 162 यह निष्कर्ष है कि संसार में सत्य ही सारभूत है।163 सत्य में महासमुद्र से भी अधिक गहराई है, चंद्रमा से भी अधिक सौम्यता एवं सूर्य से भी अधिक तेज है। 164 आशय यह है कि सत्य भाषा अतुलनीय है। साररूप में यह भी कहा गया है कि 'तं सच्चं भगवं' अर्थात् सत्य ही भगवान् है।165 341 अध्याय 6: अभिव्यक्ति-प्रबन्धन 37 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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