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________________ अनासक्ति आती है और साधक की सम्यक् भाषा-समिति की अर्हता बनती है। भाषा-समिति का परिपालन न कर पाने का दूसरा कारण है – 'कषाय अर्थात् कलुषित भाव'। हमारे वचन तभी हित, मित, प्रिय एवं ग्राह्य होंगे, जब वे कषायमुक्त होंगे। जैनाचार्यों ने विविध शास्त्रों में इन कषायों को दोषपूर्ण वचनों का आधार बताया है, जो निम्नलिखित उद्धरणों से सुस्पष्ट है - 1) क्रोध में अन्धा व्यक्ति सत्य, शील और विनय का विनाश कर डालता है।156 2) लोभग्रस्त होकर व्यक्ति झूठ बोलता है।157 3) अहंकारी व्यक्ति की आत्म–प्रशंसा और पर-निन्दा भी असत्य के समकक्ष ही होती है।158 4) क्रोध से क्षुब्ध व्यक्ति यदि सत्य भी कहता है, तो वह भी असत्य ही होता है।159 5) क्रोध, लोभ, भय एवं हास्य – इन चारों कारणों से व्यक्ति झूठ बोलता है।160 वस्तुतः ये चारों सत्य को भी असत्य बना देते हैं। इनके कारण वचन-शुद्धि का विवेक नहीं रहता। आज यदि व्यक्ति को अपनी अभिव्यक्ति को सजाना, सँवारना और स्वच्छता प्रदान करना है, तो इन मिथ्यात्व एवं काषायिक भावों से उबरना ही होगा। अंतरंग निर्मल विचारों से अभिप्रेरित वाणी ही व्यक्ति, परिवार, समाज, राष्ट्र एवं विश्व में शान्ति, प्रेम और बन्धुत्व की भावना को स्थापित करने में समर्थ है। सत्य और असत्य का विवेक भाषिक अभिव्यक्ति का सम्यक् प्रबधन करने के लिए व्यक्ति को सच और झूठ के बीच का अन्तर स्पष्ट होना चाहिए, किन्तु किसे झूठ कहा जाए और किसे सच , इसका स्पष्टीकरण कषाय-वृत्ति से युक्त व्यक्ति नहीं कर पाता। वह तो अपने स्थूल झूठ को भी सत्य ही मानता है, अतः श्रीजिनदासमहत्तर ने मृषावाद की अवधारणा को स्पष्ट करने के लिए इसके निम्न भेदों को समझाया है161 - सद्भाव का प्रतिषेध - जो विद्यमान है, उसे अविद्यमान कहना, जैसे - किसी आगन्तुक के आने पर कोई पिता अपने पुत्र से कहता है कि 'कह देना , अभी पिताजी घर पर नहीं हैं। यहीं से अगली पीढ़ी को असत्य बोलने की शिक्षा प्रारम्भ हो जाती है। 2) असद्भाव का उद्भावन - जो विद्यमान नहीं है, उसे विद्यमान कहना, जैसे - आत्मोत्कर्ष दिखाने के लिए कोई किसी को झूठ बोले कि 'हमारे पास खूब ऐश्वर्य था, हम तो करोड़ों की सम्पत्ति के स्वामी थे। 3) अर्थातर – एक वस्तु को अन्य कहना, जैसे – विनोद नामक व्यक्ति के स्थान पर यात्रा करने वाला कोई दूसरा व्यक्ति टिकिट-निरीक्षक से कहे कि 'मैं ही विनोद हूँ। 4) गर्दा - किसी की निन्दा-तिरस्कार करना, जैसे - लंगड़े व्यक्ति को लंगड़ा कहना। 36 जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व 340 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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