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________________ वर्जित है, क्योंकि यहाँ वचनों में हिंसात्मकता झलकती है।147 16) 'यह पकाने योग्य है', 'यह छिलने योग्य है', 'यह काटने योग्य है', 'यह भुनने योग्य है', 'यह चिवड़ा बनाकर (चूरकर) खाने योग्य है' इत्यादि वचन भी उपयुक्त नहीं हैं, क्योंकि इनमें हिंसा के भाव हैं।148 17) 'यह चोर मारने योग्य है', 'मृतकभोज करणीय है', 'इसे फाँसी पर चढ़ा देना चाहिए' इत्यादि वचन भी कहने योग्य नहीं है।149 18) अनुमोदनकारी भाषा, जैसे – 'बहुत अच्छा भोजन बनाया है', 'बहुत अच्छा मकान बनवाया है', ‘बहुत अच्छा फर्नीचर बनवाया है' इत्यादि का प्रयोग भी करने योग्य नहीं है, क्योंकि इसमें हिंसा या परिग्रह-वृत्ति का अनुमोदन है।150 19) निरर्थक एवं पाप-प्रवृत्ति सम्बन्धी आदेश बिल्कुल नहीं देना चाहिए।151 20) सज्जन पुरूषों को सदा याद रखना चाहिए – 'ना पुट्ठो वागरे किंचि, पुट्ठो वा नालियं वए', ___ अर्थात् बिना पूछे कुछ सलाह, उपदेश आदि नहीं देना और पूछने पर झूठ नहीं बोलना। 52 21) जैन मुनियों को तो यहाँ तक निर्देश दिया गया है कि वे गृहस्थों को बैठ, उठ, ठहर, खड़े हो, चला जा आदि न कहें, क्योंकि इन क्रियाओं में होने वाले हिंसादि दोषों में वे स्वयं भी भागीदार बन जाते हैं।153 22) पशु-पक्षियों अथवा मनुष्यों की लड़ाई में 'अमुक की विजय हो' अथवा 'अमुक की पराजय हो', ऐसा नहीं कहना चाहिए।154 इस प्रकार, वाक्य-शुद्धि के नियमों को भली-भाँति समझकर मुनि दोषपूर्ण वाणी का सर्वथा एवं गृहस्थ अपनी भूमिकानुसार आंशिक रूप से त्याग करे। वस्तुतः, सज्जन पुरूष परिमित एवं दोषरहित वाणी को सोच-विचार कर बोलते हैं, जिससे वे सर्वत्र प्रशंसा को प्राप्त करते हैं।155 विस्तृत चर्चा के आधार पर यह कहा जा सकता है कि जैनाचार्यों ने वचन की हितकारिता, मितकारिता एवं प्रियकारिता के साथ-साथ निर्दोषता पर भी अत्यधिक बल दिया है। हमारी अभिव्यक्ति में इन विशिष्टताओं का सम्यक् समन्वयन और सन्तुलन अपेक्षित है। इसे ही हम भाषा-समिति का सही स्वरूप कह सकते हैं। 6.6.5 भाषा-समिति का पालन न हो पाने के अंतरंग कारण ___ आज व्यक्ति भाषा–समिति का परिपालन क्यों नहीं कर पा रहा है, यह प्रश्न विचारणीय है। जैनाचार्यों के अनुसार, मूल रूप में इसका कारण बाहर की परिस्थितियाँ नहीं, बल्कि भीतर की मलिनता, कलुषता एवं कुटिलता ही है। इसमें भी सारी भूलों का मूल है – 'मिथ्या दृष्टिकोण' अर्थात् झूठी मान्यता। जब व्यक्ति विश्व के यथार्थ स्वरूप के बारे में सम्यक् दृष्टिकोण का विकास करता है, तभी उसका वाणी व्यवहार भी सुधरता है। सत्य को सत्य रूप में ग्रहण करने के पश्चात् ही वास्तविक 339 अध्याय 6 : अभिव्यक्ति-प्रबन्धन 36 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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