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________________ है और भेद खुल जाता है। कई बार तो व्यक्ति के हाव-भाव एवं व्यवहार से भी यह प्रकट हो जाता है। बहुत-सी बार दूसरों से सहानुभूति या मदद प्राप्त करने के लिए भी व्यक्ति अपनी गुप्त बातें दूसरों के समक्ष प्रकट करता है। ऐसी दशा में भगवान् महावीर का स्पष्ट निर्देश है कि ऐसी गोपनीय बातें दूसरों को कहकर सुज्ञ व्यक्तियों को कान भरने का पाप नहीं करना चाहिए। दशवैकालिकसूत्र में तो यहाँ तक कह दिया गया है कि पीठ पीछे किसी की बुराई करना पीठ का मांस नोंचने के समान है।84 अन्यत्र भी समझाते हुए कहा गया है कि ‘कानों से बहुत-सी बातें सुनने को और आँखों से बहुत-सी बातें देखने को मिलती हैं, किन्तु देखी-सुनी सभी बातें लोगों को कहना कतई उचित नहीं है। 85 आज पारस्परिक कलह की वृत्ति भी एक चिन्तनीय विषय है। दो या अधिक व्यक्तियों की मतभिन्नता जब अपनी सीमा का उल्लंघन कर देती है, तो परस्पर अशिष्ट, असभ्य एवं अभिशप्त वचनों का आदान-प्रदान प्रारम्भ हो जाता है। यह वाचिक आदान-प्रदान ही 'कलह' कहलाता है। आज परिवार, समाज, राष्ट्र और विश्व में सर्वत्र ही कलह का वातावरण छाया रहता है। प्रायः देखा जाता है कि थोड़े समय का कलह भी लम्बे समय तक व्यक्ति, परिवार और समाज के भावात्मक वायुमण्डल को विषाक्त बना देता है। इससे व्यक्ति कभी-कभी मानसिक और शारीरिक रोगों से ग्रस्त भी हो जाता है। सम्बन्धों का विच्छेद और संगठनों का विघटन होना, इन्हीं कलहों का दुष्परिणाम है। आज परिवार बिखर रहा है, समाज टूट रहा है और देश विभक्त हो रहा है – इसका प्रारम्भिक बिन्दु पारस्परिक कलह ही है। किन्तु जैनदृष्टि से यह कलहकारी प्रवृत्ति भी निषिद्ध है। जैनाचार्यों ने इसे स्व–पर दोनों के लिए अहितकर माना है। जैनाचार्यों ने इसका सरल, सटीक और समुचित समाधान भी दिया है और यह है – मताग्रही, कदाग्रही और दुराग्रही वृत्ति का त्याग करना। 'मेरा मत ही सच्चा है, शेष सब मिथ्या है' – यह अहंकारयुक्त सोच कलहोत्पादक है, त्याज्य है। सूत्रकृतांग में स्पष्ट कहा है - 'जो अपने मत की प्रशंसा और दूसरों के मत की निन्दा करने में ही अपना पाण्डित्य दिखाते हैं, वे दुराग्रही संसार में भटकते रहते हैं। यदि व्यक्ति स्याद्वाद का आश्रय लेकर परस्पर बोले, तो कलह उत्पन्न ही नहीं होगा। वहाँ विवाद नहीं, बल्कि स्वस्थ संवाद होगा, कलह नहीं, बल्कि अतुलनीय प्रेम होगा एवं खिन्नता नहीं, बल्कि अपूर्व प्रसन्नता छा - जाएगी। इसके लिए आवश्यक है कि हम एक-दूसरे के दृष्टिकोण को समझें और सदा स्याद्वाद से युक्त वचनों का ही प्रयोग करें। सूत्रकृतांग में बुद्धिमान् व्यक्ति की विशिष्टता दर्शाते हुए कहा गया है कि 'वह कभी किसी से कलह नहीं करता, क्योंकि कलह से बहुत हानि होती है। अतः वाचिक-विवाद से बचना चाहिए। आचारांग में कहा गया है कि 'कुछ लोग मामूली कहा-सुनी होने पर क्षुब्ध हो जाते हैं',89 परन्तु यह उचित नहीं है। वस्तुतः, यह शक्य नहीं है कि हम कानों में पड़ने वाले अच्छे या बुरे शब्द सुने ही नहीं, अतः हमें चाहिए कि हम शब्दों का नहीं, अपितु शब्दों के प्रतिकार या प्रतिशोध रुप में जन्म लेने वाले राग-द्वेष का त्याग कर दें। दुर्वचन सुनने पर भी हम न जलें अर्थात् क्रोध न करें।" हमें ध्यान रखना चाहिए कि हम विग्रह 327 अध्याय 6 : अभिव्यक्ति-प्रबन्धन 23 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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