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________________ निन्दा करना, झूठा दोषारोपण करना, कान भरना, कलह करना आदि वचनों के प्रयोग भी स्व और पर के लिए अहितकर हैं, इनका भी जैनाचार्यों ने स्पष्ट निषेध किया है। निन्दा (पर-परिवाद) करने से समय और सामर्थ्य का दुरुपयोग तो होता ही है, साथ ही हम विचारों के जाल में फँसते चले जाते हैं। हमारे निषेधात्मक भावों, जैसे – क्रोध, मान, माया, लोभ इत्यादि और अधिक गाढ़ हो जाते हैं। इनसे हमारा चित्त अशान्त, अस्थिर और अधीर हो उठता है। इतना ही नहीं, वर्तमान में अशान्ति के साथ-साथ हम भविष्य के लिए दुःखदायी पाप कर्मों का संचय भी कर बैठते हैं। जिसकी निन्दा की जाती है, उसका कार्य भले ही निन्दनीय हो, लेकिन निन्दा करना स्वयमेव निन्दनीय कृत्य है। यह हमारी दुर्बलता एवं हीनभावना का परिचायक है। इसमें कहीं न कहीं आत्म-प्रशंसा के भाव भी निहित होते हैं। प्रश्नव्याकरणसत्र में निन्दा को असत्य के समकक्ष बताया गया है। सत्रकतांगसत्र में स्पष्ट कहा है कि 'हे जीव! दूसरों की निन्दा करना किसी भी दृष्टि से हितकर नहीं है। कहा भी गया है - “जो दूसरों की निन्दा करके अपने को गुणवान् स्थापित करना चाहता है, वह व्यक्ति दूसरों को कड़वी औषधि पिलाकर स्वयं निरोगी होने की इच्छा रखता है, जो असम्भव है। 80 सार रूप में कहना होगा कि निन्दा करना अहितकर है, दुष्कृत्य है, अतः निन्दा नहीं करनी चाहिए। ___ अभ्याख्यान अर्थात् झूठा दोषारोपण करना भी अहितकर भाषा का ही एक रूप है। इसमें अपने दोषों को छिपाने के भाव और दूसरों के अपलाभ एवं अपमान करने के भावों की प्रधानता होती है। जब भावों में कठोरता और कटिलता होती है, तब अभिव्यक्ति में शिकायत और दोषारोपण की वृत्ति प्रखर हो उठती है। जैनाचार्यों ने इसे 'अभ्याख्यान' कहा है और इसको अधर्म एवं अकरणीय कार्यों के अन्तर्गत शामिल किया है। उत्तराध्ययनसूत्र में सभ्य, शिष्ट और सुशिक्षितों के लिए कहा गया है कि वे किसी पर दोषारोपण नहीं करते। यहाँ तक कि मतभेद होने पर भी परोक्ष रूप से दूसरों की भलाई की ही बात करते हैं। वस्तुतः यही सकारात्मक पद्धति है, इससे मतभिन्नता भी मतैकता में बदल जाती है और चित्त में व्यग्रता के स्थान पर शान्ति छा जाती है। जैनाचार्यों ने पैशुन्य अर्थात् चुगलखोरी करने की वृत्ति को भी अहितकर एवं अनुचित कहा है। सूत्रकृतांग में कहा गया है – 'जं छन्नं तं न वत्तव्वं' अर्थात् किसी की भी गुप्त बात को प्रकट नहीं करना चाहिए।2 आजकल दूसरों की गुप्त अर्थात् रहस्यमय बातों को उजागर करने की वृत्ति बढ़ती जा रही है। साथ ही श्रोता को भी ऐसी बातें सुनने में रस आता है। व्यावहारिक जीवन में व्यक्ति को निन्दा, आलोचना और अपयश का भय रहता है, इससे बचने के लिए वह अपनी गुप्त बातें छिपाकर रखने का प्रयास करता है। यह जरुरी नहीं कि ये गुप्त बातें हमेशा बड़े दुराचारों की ही द्योतक हों, अपितु कई बार यह खाने-पीने, सोने-उठने या घूमने-फिरने आदि की किसी विचित्र आदत से सम्बन्धित भी होती हैं। चूँकि व्यक्ति अपनी छवि खराब नहीं करना चाहता, अतः वह अपनी या अपने परिवार की या अपने कुटुम्ब की कितनी ही बातों को छिपाता है। परन्तु एक का छिपाया हुआ सत्य, दूसरा जान ही न सके, ऐसा सम्भव नहीं है। जाने-अनजाने में दूसरों की नजर उस पर पड़ ही जाती 22 जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व 326 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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