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________________ कहा जाता है। 'मधु तिष्ठति जिह्वाग्रे, हृदये तु हलाहलम् ” 2 अर्थात् उनकी जीभ पर तो शहद - होता है, किन्तु मन में जहर । आशय यह है कि वे मीठा बोलकर अपना उल्लू सीधा करते रहते हैं । किन्तु जैनाचार्यों ने इस वृत्ति का पूर्ण निषेध किया है। व्यक्ति की अभिव्यक्ति ऐसी होनी चाहिए, जिससे सबका हित सधे । उत्तराध्ययन में स्पष्ट कहा है कि हमें सदैव हितकारी वचन ही बोलना चाहिए। 73 वाणी में हिंसक शब्दों का प्रयोग होना इस बात को इंगित करता है कि हमारी वाणी दूसरों के लिए हितकर नहीं है। जैन - परम्परा में वाणी की अहिंसकता पर विशेष बल दिया है। आज भी जैन उपासक फलादि के लिए 'काटो', 'छिलो' या 'विदारण करो' जैसे अहितकर शब्दों का प्रयोग नहीं करते हुए ‘सुधारो' शब्द का प्रयोग ही करते हैं। 'हे बहु! आप सब्जी सुधार लो, जैसे वाक्य दूसरे प्राणियों की हिंसा के प्रति हमारे हृदय की कोमलता और सहानुभूति के परिचायक हैं। इसी प्रकार 'सफाई करो', 'पौंछा लगा दो' आदि के स्थान पर 'प्रमार्जन कर दो, जैसे वाक्यांशों का प्रयोग किया जाता है, जो पुनः अन्य जीवनरूपों के प्रति हितकारी भावों की अभिव्यक्ति का एक रूप है। यह ज्ञातव्य है कि बंगाली नारियाँ भी आंगन की सफाई के लिए कहती है 'आमि पोरिष्कृत करबे' । इसी प्रकार जैन-संस्कृति में ‘उपयोग रखो', 'जयणा करो' आदि वाक्यांश भी हितकर भाषा के उदाहरण हैं । यदि पिता कहते हैं 'हे पुत्र ! खिड़की की जयणा करो', तो इसका अर्थ यह हुआ कि 'हे पुत्र ! किसी जीव की हिंसा न हो, इस प्रकार से विवेकपूर्वक खिड़की बन्द कर दो।' इतना अर्थ - गाम्भीर्य 'हे पुत्र ! खिड़की बन्द कर दो, जैसे वाक्य में नहीं झलकता । अतः कहना होगा कि जैनाचार्यों ने हितकर वचनों के प्रयोग पर विशेष जोर दिया है। इनका जीवन में अनुपालन करना प्रत्येक जीवन- प्रबन्धक का अनिवार्य कर्त्तव्य है । शिष्ट, सौम्य एवं प्रसन्नचित्त रहना तो उचित है, किन्तु हास्य, व्यंग्य एवं मजाक उड़ाना घोर अनुचित कार्य है। इससे शत्रु तो मित्र नहीं बनते, किन्तु मित्र को शत्रु बनते देर नहीं लगती। 'सेंस ऑफ ह्यूमर' होना (प्रसंगानुकूल सभ्य विनोद करना अथवा किसी के विनोद को समझना) अलग बात है और किसी की हँसी उड़ाना अलग बात है। 74 द्रौपदी के ये वचन कि 'अन्धे के पुत्र अन्धे ही होते हैं', महाभारत के युद्ध का प्रमुख कारण बना। अतः ऐसी अहितकर वाणी का प्रयोग भी क्यों करना ? विंटगिन्सटाइन कहते हैं "There are remarks that sow and remarks that reap" अर्थात् 'टिप्पणियाँ ही बोती हैं अर्थात् जोड़ती हैं और टिप्पणियाँ ही काटती हैं। 75 सूत्रकृतांग में इसीलिए सावचेत किया गया है 'णातिवेलं हसे' अर्थात् असमय में नहीं हँसना चाहिए। 76 यह बुद्धिमान् पुरूषों की विशिष्ट पहचान होती है कि वे किसी का भी उपहास नहीं करते।" जैनाचार्यों के अनुसार तो हास्य करना, मनोरंजन करना, मखौल उड़ाना, गप्पेबाजी करना, चुटकुले सुनाना आदि ऐसे कार्य हैं, जो दूसरों को निराश करते हैं और स्वयं के कर्मबन्धन के कारण भी होते हैं। अतः इन्हें काषायिक वृत्ति एवं स्व-पर अहितकारी कार्य जानकर नहीं करना चाहिए । 325 अध्याय 6 : अभिव्यक्ति-प्रबन्धन Jain Education International - - For Personal & Private Use Only 21 www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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