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बोल्या के लाध्या । व्यक्ति कैसा है, यह जानने के लिए बहुत गहराई में जाने की आवश्यकता नहीं है, उससे पाँच मिनट बात करने पर सहज ही पता चल जाता है 64
यहाँ पर मधुर वाणी का प्रयोग चापलूसी, ठगी, मायाचारी आदि दुष्कार्यों के लिए करना भी उचित नहीं है। स्थानांगसूत्र में गलत अभिप्राय वाले लोगों के सन्दर्भ में स्पष्ट कहा है कि जिनका हृदय तो कलुषित और दम्भयुक्त है, किन्तु वाणी से मीठा बोलते हैं, वे मनुष्य विष के घड़े पर मधु के ढक्कन के समान हैं। आज अधिकांश लोग, जिनकी वाणी में सरलता, सरसता और सुमधुरता का प्रदर्शन है, मौकापरस्त और स्वार्थी हैं। इनके विचार, वाणी और व्यवहार में एकरूपता नहीं होती है।
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वस्तुतः, हमारी जीवनशैली मधु के घड़े पर मधु के ढक्कन के समान होनी चाहिए । हमारा अन्तर्हृदय निष्पाप एवं निर्मल हो और वाणी में मधुरता हों, यही जैनाचार्यों को अभीष्ट है। सूत्रकृतांगसूत्र में इसीलिए कहा गया है। साधक न तो किसी का तिरस्कार करते हुए तुच्छ और हल्की भाषा का प्रयोग करे और न ही किसी की झूठी प्रशंसा करे। 67 आशय यह है कि न तो कटु शब्द कहे और न ही दिखावटी मधुरता जताए ।
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भले ही व्यक्ति प्रकाण्ड विद्वान् ही क्यों न हो अथवा किसी विषय का कितना ही मर्मज्ञ भी क्यों न हो, लेकिन उसकी वाणी में अल्पज्ञों और मूर्खों के प्रति भी उपहास, व्यंग्य और कटुता की अभिव्यक्ति नहीं होनी चाहिए। बृहद्कल्पभाष्य में स्पष्ट कहा गया है, “जिस प्रकार जहरीले काँटों वाली लता से लिपटा होने पर अमृत-वृक्ष का कोई आश्रय नहीं लेता, उसी प्रकार दूसरों का तिरस्कार करने एवं दुर्वचन कहने वाले विद्वानों को भी कोई सम्मान नहीं देता ।'
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सार रूप में कहा जा सकता है कि मधुर वाणी व्यक्ति के व्यक्तित्व का आभूषण है। यह जीवन के सौन्दर्य को निखार देती है। इससे व्यक्तित्व की कई प्रकार की कमियाँ स्वतः ढँक जाती हैं। यह जख्मी दिलों के लिए मरहम-पट्टी का कार्य करती है। जिसकी वाणी में दूसरों के लिए आदर है, प्रशंसा है और नम्रता है, वह सहज ही दूसरों के दिलों पर राज करता है। ऋषिभाषित में भी कहा गया है - जो सदा सुवचन बोलता है, वह समय पर बरसने वाले मेघ की तरह सदा प्रशंसनीय और जनप्रिय होता है। 70
(2) हित वचन
प्रिय वचनों के साथ-साथ हित वचनों का समावेश करना भी अत्यावश्यक है। कोई वचन प्रिय तो है, किन्तु हितकर नहीं है, तो उन प्रिय वचनों से भी कोई लाभ नहीं है । दशवैकालिकसूत्र में इसीलिए कहा गया है कि बुद्धिमानों को ऐसी भाषा ही बोलनी चाहिए, जो प्रियकारी भी हो और हितकारी भी । 71
आज विडम्बना यह है कि व्यक्ति के वचनों में मौकापरस्ती, चापलूसी, स्वार्थपरकता और शठता के भाव विद्यमान हैं और यह एक सामान्य सामाजिक व्यवहार बनता जा रहा है। कई लोगों के बारे में जीवन- प्रबन्धन के तत्त्व
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