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________________ सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात्, मा ब्रूयात् सत्यमप्रियम् । प्रियं च नानृतं ब्रूयादेष धर्म सनातनः ।। अर्थात् व्यक्ति को सिर्फ सत्य ही नहीं बोलना चाहिए, बल्कि ऐसा सत्य बोलना चाहिए, जो प्रियकारी भी हो।58 अधिकांश समस्याओं की शुरुआत वाणी की अशिष्टता और अभद्रता से ही होती है। व्यक्ति जितना करके नहीं बिगाड़ता है, उससे ज्यादा बोलकर बिगाड़ता है। वृंदसतसई में कहा भी है - बात कहन की रीति में, है अन्तर अधिकाय । ___ एक वचन तै रीस बड़े, एक वचन तै जाय ।। अर्थात् किसी एक तरीके से कहे गए वचन से जहाँ आत्मीयता और प्रेम बढ़ता है, वहीं किसी अन्य तरीके से कहे गए वचन से परस्पर रोष एवं दूरियाँ बढ़ती हैं। जैनाचार्यों ने इसीलिए ओछे , अभद्र , असभ्य, अभिशप्त एवं अशिष्ट शब्दों के प्रयोग का दृढ़ता से निषेध किया है। सूत्रकृतांग में कहा भी गया है – 'तुमं तुमन्ति अमणुन्नं, सव्वसो तं न वत्तए' अर्थात् तू-तू जैसे अभद्र शब्द कभी नहीं कहना चाहिए। __ शिष्ट व्यक्ति और शिष्ट समाज की भाषा में वाणी का विवेक होता है। उसमें अपशब्दों की बौछार नहीं होती। कुछ व्यक्ति जब आक्रोश में रहते हैं, तो गालियों की बौछार कर देते हैं। गालियों का एक छोटा सा शब्दकोश बन जाता है। इससे विपरीत कुछ लोग मीठी और भद्र भाषा का ही प्रयोग करते हैं। आ. महाप्रज्ञजी ने इसीलिए कहा है – 'कषाय की छलनी से छनकर जो भाषा बोली जाती है, वह नहीं बोलनी चाहिए, कषायमुक्त भाषा ही बोलनी चाहिए। यह ज्ञातव्य है कि सभी भाषाओं में आदरसूचक शिष्ट शब्दों का प्रयोग करने की सुविधा होती है, अतः हमें तिरस्कार रूप अनादरसूचक शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए। विपरीत एवं प्रतिकूल परिस्थितियों में भी वाणी की मधुरता, कोमलता एवं सौम्यता प्रतिरोधी के समक्ष विशिष्ट प्रभाव छोड़ती है। अतः कहा गया है - अति वा दांस्तितिक्षेत नावमन्येत कंचन। न चेमं देहमाश्रित्य वैवं कुर्वीत केनचित् ।। किसी के द्वारा कही गई कटु-कठोर वाणी को सहन करना चाहिए, किसी का अपमान नहीं करना चाहिए और इस शरीर से किसी के साथ शत्रुता नहीं करनी चाहिए। यहाँ तक कि क्रुद्ध व्यक्ति के प्रति भी क्रोध नहीं करना चाहिए तथा निन्दित होने पर भी निन्दक के प्रति मधुरवाणी का ही प्रयोग करना चाहिए। अच्छी मधुर भाषा तो व्यक्तित्व की विशिष्टता की ही परिचायक है। प्रसिद्ध कहावत भी है - 323 अध्याय 6 : अभिव्यक्ति-प्रबन्धन 19 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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