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________________ (ख) विश्राम शरीर रूपी यंत्र को उचित मात्रा में विश्राम देना भी आवश्यक है। जैनाचार्यों ने श्रावकोचित जीवनशैली में विश्राम सम्बन्धी अनेक निर्देश दिए हैं, जिनका पालन शरीर - प्रबन्धन के लिए अत्युपयोगी है, जैसे - ★ कायोत्सर्ग, ध्यान, सामायिक, माला आदि शुभ-अनुष्ठानों में चित्त को लगाना । ★ सांसारिक आरम्भ - समारम्भ को सीमित करना । 60 ★ दिशा का परिमाण करना, जिससे जीवन में अधिक भाग-दौड़ न करनी पड़े। ★ अष्टमी, चतुर्दशी एवं अन्य पर्व तिथियों में पौषध - देसावगासिक आदि करना । ★ अनर्थदण्ड अर्थात् निरर्थक और हानिकारक कार्यों से बचना, जैसे पार्टी आयोजन, निन्दा आदि । ★ भोगोपभोग के साधनों से दूर रहना, जिनसे पहले तो आनन्द का आभास होता है और बाद में अरुचि, थकान और रोग की प्राप्ति होती है। ★ पर्युषण, नवपद ओली आदि पर्वों में व्यापार एवं गृह - आरम्भों का आंशिक या पूर्ण अवकाश रखना । ★ मानसिक विश्राम के लिए भक्ति एवं प्रार्थना करना । ★ वैचारिक संघर्षों अथवा उलझनों से बचने के लिए स्वाध्याय, सत्संग आदि करना । व्यवहारभाष्य में श्रम - विश्राम के सन्तुलन का उत्तम उदाहरण मिलता है जब आचार्य या गुरु यात्रा करने, वाचना देने अथवा निरन्तर बैठे रहने से परिक्लान्त हो जाते हैं, थक जाते हैं, तब शिष्य को चाहिए कि वह सिर से प्रारम्भ कर पैर तक उनके अंगों को मृदुता से दबाए, ऐसी विश्रामणा से गुरु के चलायमान वात, पित्त और कफ आदि दोष साम्यावस्था में आ जाते हैं, उनकी थकान दूर हो जाती है और शरीर सुदृढ़ एवं बलवान् हो जाता है तथा अर्श (बवासीर) आदि रोग भी नहीं होते | 220 ---- Jain Education International सैर-सपाटे, परविवाह, शरीर-प्रबन्धक को चाहिए कि उपर्युक्त विवेचन के आधार पर वह अपनी जीवनशैली को सम्यक्तया प्रबन्धित करता जाए और असमय एवं अकारण होने वाली व्याधियों से बचे । जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व For Personal & Private Use Only - 286 www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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