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________________ (4) श्रम-विश्राम-प्रबन्धन - जैनाचार्यों के अनुसार, प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में प्रवृत्ति (श्रम) और निवृत्ति (विश्राम) का सन्तुलन अपेक्षित है। जब यह सन्तुलन बिगड़ता है, तब बड़ी कठिनाई पैदा हो जाती है। अतिप्रवृत्ति पागलपन की ओर ले जाती है, तो अतिनिवृत्ति निकम्मेपन की ओर 14 जीवन में इसीलिए श्रम एवं विश्राम के सन्दर्भ में औचित्य-अनौचित्य का विवेक जाग्रत होना जरुरी है, जिससे शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक आरोग्य की प्राप्ति हो सके। (क) श्रम - आरोग्य का सबसे बड़ा सूत्र है - श्रम। प्रत्येक अवयव को स्वस्थ रखने के लिए उचित श्रम की आवश्यकता होती है। श्रम करने से रक्त का संचार ठीक ढंग से होता है और कीटाणुओं के आक्रमण का प्रतिकार करने की क्षमता का विकास होता है।15 जैनदर्शन में निम्नलिखित बिन्दुओं के द्वारा श्रमशीलता की प्रेरणा प्राप्त होती है - ★ जैन श्रमण एवं श्रमणियों के स्वावलम्बी जीवन का अनुकरण करना, जिनका प्रत्येक क्रियाकलाप स्वाश्रित होता है, जैसे - उपधि-प्रतिलेखन, उपधि-वहन, केश-लुंचन, पद-विहार, वसति-प्रमार्जन आदि। ★ वैयावृत्य अर्थात् सेवा-शुश्रूषा में रुचि रखना, जैसे – भोजन में परोसगारी करके खाना, वृद्ध, ग्लान आदि के हाथ-पैर दबाना (विश्रामणा करना)। कहा भी गया है – 'परस्परोपग्रहो जीवानाम् 16 अर्थात् जीवन में परस्पर सहयोग करते हुए जीना। लिखी हो भाल पर जो भाग्य रेखा, उसे क्षण-क्षण मिटाकर फिर बनाओ। हिमालय और गंगा से शपथ ले, बहो ऐसे कि सबके काम आओ।। 217 ★ बिना आलस्य किए शुभ अनुष्ठानों को सविधि करना, जैसे – प्रतिक्रमण, सामायिक, देवदर्शन, देवपूजन, देववन्दन, गुरुवन्दन, प्रदक्षिणा, खमासमण आदि क्रियाएँ । * सुविधा एवं विलासिता की मर्यादा करना , जैसे – वाहन, नौकर-चाकर आदि का परिमाण। 18 ★ नकारात्मक सोच से बचना अर्थात् निराशावादी होकर व्यसनों एवं निषिद्ध औषधियों (Sleeping Pills etc.) का सेवन नहीं करना, जिससे शरीर के स्नायुतन्त्र की सक्रियता बनी रहे। ★ वीर्याचार का पालन करना , जिससे जीवन-योग्य कार्यों में उत्साह, उमंग एवं उल्लास बना रहे, यह भावनात्मक सक्रियता ही शारीरिक क्रियाशीलता का रूप धारण कर लेती है। कहा भी गया है – “रूचि अनुयायी वीर्य' |21 ★ अधिकारों की प्राप्ति को भाग्य पर छोड़ देना एवं कर्त्तव्यों के निर्वाह को पुरूषार्थ से जोड़ लेना। ★ अधिकाधिक स्वाश्रित होकर जीना एवं परावलम्बन का त्याग करना। अध्याय 5 : शरीर-प्रबन्धन 59 285 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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