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________________ (5) निद्रा-प्रबन्धन जैनदर्शन में निद्रा के सन्दर्भ में दो निर्देश प्राप्त होते हैं - मुनि निद्रा-अवधि एक प्रहर दो प्रहर निद्रा-समय रात्रि का तृतीय प्रहर रात्रि का द्वितीय एवं तृतीय प्रहर गृहस्थ इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि जैनाचार्यों ने व्यक्ति को मानसिक-शारीरिक श्रम एवं अन्य कारकों के आधार पर निद्रा की अवधि का निर्धारण करने का निर्देश दिया है। उनकी दृष्टि में, व्यक्ति को विवेकपूर्वक उचित निद्रा ही लेनी चाहिए, न आवश्यकता से अधिक और न अल्प। निद्रा का हेतु केवल श्रम-निवारण है, परन्तु वही जब शौक बन जाए, तो संयम में हानि पहुँचती है।223 यदि व्यक्ति अधिक निद्रा लेता है, तो उसके यह जन्म और परजन्म दोनों नष्ट हो जाते हैं। चोर, वैरी, दुर्जन, धूर्त आदि भी उस पर हमला कर सकते हैं। 24 श्रीमद्राजचन्द्र ने भी कहा है कि गृहस्थ को दो प्रहर ही निद्रा लेनी चाहिए25 और यदि दिन में भी नींद आती है, तो प्रथमतः भक्ति आदि के अभ्यास के द्वारा उसे टालना चाहिए।26 नीतिवाक्यामृत में भी निद्रा के सन्दर्भ में कहा गया है कि व्यक्ति को सूर्यास्त और सूर्योदय के समय नहीं सोना चाहिए,227 जो व्यक्ति स्वस्थ रहने का इच्छुक है, उसे नियत समय ही नींद लेनी चाहिए। 228 जैनाचार्यों ने यह भी कहा है कि जो व्यक्ति अल्पनिद्रा लेते हैं, उन्हें देवता भी प्रणाम करते हैं। 29 नीतिवाक्यामृत में भी यथोचित निद्रा का लाभ बताते हुए कहा गया है कि इससे खाए हुए भोजन का पाचन सुव्यवस्थित ढंग से हो जाता है और प्रसन्नता रहती है, साथ ही शरीर भी अपने कर्तव्य पालन के लिए समर्थ रहता है।230 जिस प्रकार अधिक सोना नहीं चाहिए, उसी प्रकार अल्प निद्रा (आवश्यकता से कम) भी नहीं लेनी चाहिए। कल्याणकारक में कहा गया है – आवश्यक निद्रा आरोग्य का कारण है तथा निद्रा-भंग होने से वातादि दोषों का उद्रेक होता है।231 व्यवहारभाष्य में भी कहा गया है कि निद्रा के अभाव में अजीर्ण रोग हो सकता है। 232 287 अध्याय 5 : शरीर-प्रबन्धन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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