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________________ से बताए गए हैं। 189 व्यवहारभाष्य में आहार के अनुपात का ऋतुवार वर्णन प्राप्त होता है184 - ग्रीष्म वर्षा शीत आहार 2 भाग 4 भाग 3 भाग जल 3 भाग 1 भाग 2 भाग वायु 1 भाग 1 भाग 1 भाग जैनदर्शन में तप को उत्कृष्ट धर्म के रूप में माना गया है। इनमें से जो बाह्यतप हैं, उनमें चार तप का शरीर के सम्यक् प्रबन्धन के लिए विशेष महत्त्व है - तपय अभिप्राय 1) अनशन आहार का त्याग करना। 2) ऊनोदरी भूख से कम खाना। 3) वृत्तिसंक्षेप आहार के प्रकारों का सीमाकरण करना। 4) रस-परित्याग स्वाद का आग्रह छोड़ना। इन चारों प्रकार के तपों का मूल ध्येय है - आहार की मात्रा पर अंकुश लगाना और आरोग्य का संरक्षण करना। 1) अनशन - इसका अर्थ सिर्फ उपवास (लंघन) ही नहीं है, अनशन तो स्वयं एक चिकित्सा है। डॉ. सेल्टन के अनुसार, उपवास का पहला लाभ है - शरीर के विजातीय पदार्थों का निष्कासित होना। आहार से शरीर में विष जमा हो जाता है और यदि इस विष (दूषित सामग्रियों) को शरीर से बाहर नहीं निकाला जाए, तो स्वास्थ्य बिगड़ जाता है। उपवास का ही दूसरा लाभ है – पाचन-तन्त्र को विश्राम मिलना। जीवन का आधार ही पाचन-तन्त्र है और अतिमात्रा में आहार करने से इस पर दबाव आता है, जिससे शरीर के अन्य तन्त्र भी प्रभावित एवं रोगग्रस्त हो जाते हैं। उपवास के माध्यम से पाचन-तन्त्र को विश्राम मिलता है, जिससे उसकी पाचन क्षमता में भी सुधार आता है।185 2) ऊनोदरी - इसका अर्थ है – प्रमाणोपेत आहार से कम आहार करना। यह जैनदर्शन का अद्वितीय तप है और दीर्घायु होने का मूल कारण भी। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि व्यक्ति को ढूंस-ठूस कर आहार नहीं करना चाहिए। 186 वहीं निशीथभाष्य में कहा गया है कि अल्पमात्रा में लिया गया आहार गुणकारी सिद्ध होता है।187 यह भी कहा गया है कि जिनका आहार अल्प है, उन्हें देवता भी प्रणाम करते हैं।188 ओघनियुक्ति में तो यहाँ तक कहा गया है कि अल्पाहारी अर्थात् सीमित मात्रा में आहार करने वाले को किसी चिकित्सक की आवश्यकता ही नहीं होती।189 इस प्रकार, जैनदर्शन में सदा ही आहार की मात्रा को संयमित करने का निर्देश दिया गया है। 277 अध्याय 5 : शरीर-प्रबन्धन 51 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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