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________________ व्यवहार जगत् में जीवन-प्रबन्धक यदि अपने पेट को पूरा नहीं भरता है, तो उसे ऊनोदरी तप माना जा सकता है। इससे अनेक लाभ दिखाई देते हैं, जैसे190 - ★ आलस्य में कमी ★ स्वास्थ्य की सुरक्षा ★ बुद्धि का विकास ★ आत्मोन्नति की पात्रता 3) वृत्तिसंक्षेप - यह तप पेट को अनावश्यक विविधताओं वाले आहार से बचाता है। आज व्यक्ति प्रीतिभोजादि में रस-लोलुपता से ग्रस्त होकर अतिमात्रा में आहार करता है। वह प्रत्येक स्टॉल में रखी सामग्रियों का आनन्द लेना चाहता है, लेकिन परिणाम में पीड़ा ही पाता है। वृत्तिसंक्षेप तप के द्वारा वह इस प्रकार की अतिवृत्ति से बच सकता है। किसी ने कहा भी है – खावे बकरी की तरह, सूखे लकड़ी की तरह।191 4) रसपरित्याग - यह तप घी, तेल, दूध, दही आदि रसों के सेवन का वर्जन करता है। स्वास्थ्यशास्त्रियों का कहना है कि रसों का सेवन प्रतिदिन नहीं करना चाहिए, कभी करना और कभी छोड़ना चाहिए। 192 जैन-परम्परा में रस-सन्तुलन के लिए रसपरित्याग की विधि है, जिसके अन्तर्गत नीवि, आयम्बिल , विगई-त्याग आदि व्यवस्थाएँ हैं। इस तप के अनेक लाभ हैं, जैसे193 - * कोलेस्ट्रॉल की मात्रा में वृद्धि पर रोक * हृदय रोग एवं उच्च रक्तचाप से बचाव ★ मोटापे पर नियंत्रण ★ मधुमेह से रक्षा इत्यादि __ अतएव बिना हठाग्रह के उपर्युक्त तपों का सेवन करने से स्वास्थ्य की अभिवृद्धि होती है और यदि आध्यात्मिक साधना के साथ इन तपों का सेवन किया जाए, तो आत्म-स्वास्थ्य की अभिवृद्धि भी होती है। जैनधर्म में मूलतः तप का अन्तिम ध्येय आत्मविजय ही है। (छ) आहार कैसे करना - जैनदर्शन में श्रमण एवं श्रावक दोनों के लिए एक व्यवस्थित आहार-विधि बताई गई है, जिसका सेवन प्रत्येक जीवन-प्रबन्धक को अपनी-अपनी भूमिकानुसार करना चाहिए। दशवैकालिकसूत्र में मुनि की आहार-विधि का सुव्यवस्थित चित्रण किया गया है, किन्तु विस्तारभय से इसे यहाँ नहीं दर्शाया जा रहा है।194 श्राद्धधर्म, कल्याणकारक आदि ग्रन्थों में श्रावक की आहार-विधि का जो वर्णन मिलता है, उसके आधार पर आगे वर्णन किया जा रहा है - ★ अन्य सदस्यों को भोजन कराकर भोजन करना। ★ स्वच्छ आसन पर स्थिर चित्त से बैठकर आहार करना। ★ जूते-चप्पल पहनकर अथवा पलंग पर बैठकर भोजन नहीं करना। ★ इष्टदेव के नामस्मरणपूर्वक भोजन प्रारम्भ करना। ★ खुले में, धूप में, अन्धकार में अथवा वृक्ष के नीचे बैठकर भोजन नहीं करना। 52 जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व 278 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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