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________________ (ङ) आहार कहाँ करना जैनाचार्यों की दृष्टि में जीवन - प्रबन्धक को केवल उन्हीं स्थानों पर आहार करना चाहिए, जहाँ आहार-शुद्धि का विशेष ध्यान रखा जाता हो। उपासक - अध्ययन में भी कहा गया है कि भावों की विशुद्धि के लिए भोजन की शुद्धि होना अनिवार्य है, यदि भोजन शुद्ध नहीं हो, तो हजारों उपचार करके भी भावों की विशुद्धता को प्राप्त नहीं किया जा सकता। 75 सागारधर्मामृत में स्पष्ट कहा गया है कि योग्य गृहस्थ को उद्यान में भोजन नहीं करना चाहिए । यह भी कहा गया है कि आपवादिक रूप से यदि व्यवहार - निर्वाह की मजबूरी हो, तो बिना दोष लगाए साधर्मिक भाइयों के घर में अथवा विवाहादिक में भोजन किया जा सकता है । 177 176 उपर्युक्त तथ्य के आधार पर निम्नलिखित स्थानों पर भोजन नहीं करना चाहिए ★ होटल, रेस्त्रां एवं ढाबा ★ सिनेमाघर एवं अन्य सार्वजनिक स्थान ★ चाय, कॉफी, कचौरी, आईसक्रीम, पान आदि के स्टॉल ★ उद्यान (Garden and Picnic resorts) ★ सहभोज एवं प्रीतिभोज उपर्युक्त स्थानों पर भोजन इसीलिए नहीं करना चाहिए, क्योंकि वहाँ शुद्धि - अशुद्धि पौष्टिकता - अपौष्टिकता, सात्विकता - तामसिकता, अहिंसा - हिंसा आदि का विवेक न तो रखा जाता है और न ही रखने का उद्देश्य होता है, परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि घर का भोजन सर्वथा स्वीकार्य है। यदि गेहूँ, दाल, चावल, आटा, बेसन आदि बिना छाने, बिना बीने प्रयुक्त किए जाते हैं, गाने सुनते-सुनते सब्जी सुधारी जाती है, बातचीत करते-करते भोजन बनाया जाता है, क्लेश - कलह करते-करते भोजन परोसा जाता है, चिन्ता एवं तनाव के साथ आहार किया जाता है, टी.वी. देखते-देखते आहार किया जाता है, तो ऐसा आहार भी अनुपयुक्त है। इस स्थिति में घर का बना आहार भी मानसिक एवं शारीरिक विसंगतियों का कारण बन सकता है। इसीलिए बुद्धिमान् लोगों ने ऋतभुक् अर्थात् शुद्ध भोजन वाले स्थानों पर ही भोजन करने की प्रेरणा है 178 (च) आहार कितना करना शरीर - प्रबन्धन के लिए आहार की मात्रा का विवेक होना भी अत्यावश्यक है। आज चिकित्सालयों में प्रवेश पाने वाले लगभग 87% रोगियों के रोग का मूल कारण अजीर्ण से सम्बन्धित होता है, जो इस बात का द्योतक है कि अधिकांश लोग प्रमाण से अधिक आहार सेवन करते हैं। 179 - 180 जैनाचार्यों के अनुसार, एक स्वस्थ पुरुष का आहार बत्तीस कवल, स्त्री का अट्ठावीस कवल और नपुंसक का चौबीस कवल होता है। मूलआराधना में कवल का परिमाण 1000 चावल के दानों जितना, ' भगवती में व्यक्ति (पुरूष) की खुराक का बत्तीसवां भाग जितना ' और व्यवहारभाष्य में बड़े आँवले अर्थात् मुख प्रमाण जितना परिमाण माना गया है। यह प्रतीत होता है कि ये परिमाण स्थूल रूप 181 182 50 जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व 276 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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