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________________ 42 कदाचित् प्राणघात होने की सम्भावना भी होती है। आहार ग्रहण करने के पूर्व उसके गुण-दोषों की यथोचित जानकारी लेने को जैनाचार्यों ने मुनि का एक आवश्यक कर्त्तव्य ( एषणा – समिति) कहा है। 140 141 ★ असंयोजित आहार जैनाचार्यों ने मुनि के लिए संयोजनरहित आहार अर्थात् दो या दो से अधिक वस्तुओं को नहीं मिलाते हुए आहार करने का विधान किया है। गृहस्थ के लिए भी वृत्ति - परिसंख्यान तप के द्वारा सीमित विविधताओं वाला भोजन करने का ही निर्देश दिया है। विशेषरूप से मूंग, उड़द, तुअर, चना आदि द्विदल (कठोल / दाल) के साथ कच्चे गोरस (दूध, दही एवं छाछ) के आहार का स्पष्ट निषेध किया है, जैसे दही-बड़ा, कढ़ी, दही- पापड़ आदि। शारीरिक स्वास्थ्य की दृष्टि से भी कुछ लोगों को इससे गैस्ट्रिक रोग, गठियावात आदि की शिकायत होती है। ★ अहिंसक आहार जैनदर्शन का मूल अहिंसा है। जिस व्यक्ति के जीवन में सूक्ष्म-स्थूल जीवों के प्रति दया, प्रेम और स्नेह नहीं होता, उसके जीवन में नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास भी नहीं हो सकता। जैनाचार्यों ने इसीलिए आत्मतुल्य दृष्टि से अहिंसक आहार की ही प्रेरणा दी है । यह अहिंसक आहार शारीरिक अनिष्टता से बचाता है तथा आध्यात्मिक प्रगति में भी सहायक होता है। इसी आधार पर, जैनाचार्यों ने बाईस प्रकार के अभक्ष्य पदार्थों का निषेध किया है, जिनमें से अधिकांश अभक्ष्य शारीरिक स्वास्थ्य की अपेक्षा से भी हानिकारक है। 'अहिंसक आहार' के बारे में किसी ने कहा भी है 142 अ अमृतमयी आहार हो हिं हिंसारहित आहार हो Jain Education International - ★ सुपथ्य आहार उत्तराध्ययनसूत्र में यह दृष्टि मिलती है कि व्यक्ति को रसलोलपुता छोड़कर सदैव सुपथ्य आहार का सेवन करना चाहिए । एक कथानक के अनुसार, एक वैद्य ने एक रोगी राजा को आम खाना कुपथ्यकारक बताया, परन्तु वनविहार में राजा का मन ललचा गया, वैद्य के सुझाव की अवगणना कर मंत्री के मना करने पर भी उसने आम खा लिया। आम खाते ही राजा की मृत्यु हो गई। 143 इससे सुपथ्य आहार का महत्त्व स्वतः सिद्ध है। - स सन्तुलित आहार हो क कल्याणकारी आहार हो आ आनन्दकारी आहार हो हा हाजमाकारी (सुपाच्य) आहार हो रोगरहित आहार हो जीवन- प्रबन्धन के तत्त्व For Personal & Private Use Only 268 www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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