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मिठाई एवं अन्य गरिष्ठ व्यंजन आ जाते हैं । '
चूँकि राजसिक भोजन का अतिमात्रा में सेवन करने से काम-क्रोधादि चित्तवृत्तियाँ उत्तेजित होती हैं तथा हृदयरोग, मधुमेह, मोटापा आदि शारीरिक व्याधियाँ उत्पन्न होती हैं, अतः जैनाचार्यों ने सीमित मात्रा में इस आहार का सेवन करने का निर्देश दिया है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है। "रसदार व्यंजनों का अधिक मात्रा में सेवन नहीं करना चाहिए, क्योंकि इनसे धातुएँ उद्दीप्त हो जाती हैं और व्यक्ति को कामनाएँ एवं वासनाएँ उसी तरह सताती हैं, जिस तरह फलदार वृक्ष को पक्षी सताते हैं ।” जैन - परम्परा में इसीलिए छः प्रकार की विगई अर्थात् विकृतिकारक पदार्थों का उल्लेख किया गया है, प्रत्येक जीवन - प्रबन्धक को विवेकपूर्वक इनका त्याग अवश्य करना चाहिए। प्राचीनकाल में श्रावकवर्ग भी प्रतिदिन एक विगई का त्याग करते हुए सातवें दिन (अष्टमी, चतुर्दशी) को सर्व विगई के त्यागरूप आयम्बिल, उपवासादि करते थे। ये छह विगई हैं 135
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1) दूध 2) दही
3) जैनाचार्यों के द्वारा अनुमत सात्विक आहार
3) घी 4) तेल
जैन - आहार-संहिता का यह तीसरा बिन्दु है । जिस आहार में पोषक तत्त्व तो हों, किन्तु मिर्च-मसाले और गरिष्ठता अतिमात्रा में न हो, उसे सात्विक आहार कहते हैं। इस प्रकार के आहार से चित्त में विकार पैदा नहीं होते, प्रत्युत पवित्र एवं सात्विक भावनाएँ उभरती हैं। इसके अन्तर्गत धान्य, हरी सब्जियाँ, फल आदि आते हैं। 136
शरीर - प्रबन्धन के लिए सात्विक आहार के मापदण्ड
★ पौष्टिक आहार जैनाचार्यों ने सदैव पोषक तत्त्वों से युक्त आहार करने की ही अनुमति दी है, न कि तुच्छ या असार आहार की। उन्होंने बर्फ, ओले, मिट्टी, अल्प गुदे वाले तुच्छ फलों (बेर आदि) को सर्वथा अभक्ष्य बताया है । कहा भी है “भक्षितेनापि किं तेन येन तृप्तिः अर्थात् उन खाद्य पदार्थों को खाने से क्या लाभ, जिनको खाने से तृप्ति न
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न जायते” 138
मिले । ★ हिताहार
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शरीर-प्रबन्धन के लिए यह भी आवश्यक है कि व्यक्ति जीवन-यात्रा को सुखपूर्वक चलाने के लिए आहार करे, न कि जीवन-यात्रा समाप्त करने के लिए। जैनाचार्यों ने इसीलिए गुटखा, तम्बाकू, भांग, अफीम, विष एवं अन्य अवांछित पदार्थों (Slow Poison) के सेवन का स्पष्ट निषेध किया है
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5) गुड़ एवं शक्कर 6) तली हुई वस्तुएँ
★ ज्ञात आहार जैनाचार्यों ने सदा उसी आहार को सेवन करने योग्य माना है, जिसके नाम तथा गुण-दोषों का सम्यक् परिचय हो । उन्होंने अनजाने फलादि को इसीलिए अभक्ष्य बताया है । शरीर - प्रबन्धन की दृष्टि से भी यह निषेध उचित ही है, क्योंकि इससे अनेक रोग तथा
अध्याय 5: शरीर-प्रबन्धन
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