SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 34
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ འ ༢༢ ཏྭཱཏུ,ཏུ बनाने में उपयोगी हैं और इनकी उपयोगिता दिनोंदिन बढ़ती ही जा रही है। भले ही आज हम पाश्चात्य-संस्कृति के मोहपाश में फँसकर भौतिकता पर आधारित जीवनशैली को ही जीवन का एकमात्र आधार मानते हों, परन्तु जैन जीवनशैली को अपनाकर हम अपने जीवन में भौतिकता एवं आध्यात्मिकता का सम्यक् सन्तुलन स्थापित कर सकते हैं। अतः, प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध में मैंने इस बात को प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है कि जैनआचारमीमांसा के प्रबन्धकीय सूत्र कौन-कौन से हैं और उनका जीवन-व्यवहार में किस प्रकार से प्रयोग किया जा सकता है। जैनदर्शन में प्रारंभ से ही प्रबन्धन-चेतना का विकास हुआ है। इसका कारण यह है कि जैनाचार्यों ने जगत् को सदैव परिवर्तनशील रहते हुए एक कायम व्यवस्था के रूप में माना है। आचार्य उमास्वाति ने स्पष्ट कहा है कि यह जगत् उत्पन्न होता है, व्यय होता है और कायम भी रहता है - 'उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्'। इसीलिए जैनाचार्यों का लक्ष्य सदैव यही रहा कि जीवन की परिवर्तनशीलता या गत्यात्मकता (Dynamicity) को सकारात्मक दिशा दी जाए, जीवन–प्रबन्धन का उद्देश्य भी वस्तुतः यही है। अतः, जैन जीवन-दृष्टि में प्रबन्धन का अर्थ जीवन के प्रवाह को सम्यक् दिशा प्रदान करना ही है। इस शोध-प्रबन्ध में भी जीवन के विविध पक्षों को ध्यान में रखते हुए, उन्हें विसंगतियों से मुक्त कर सुसंगत बनाने का मार्गदर्शन दिया गया है। प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध मानवीय जीवन के प्रबन्धन को लक्ष्य में लेकर लिखा गया है, क्योंकि मनुष्य ही इस जगत् का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है। परिवर्तन की सर्वाधिक क्षमता भी मनुष्य में ही होती है। यह परिवर्तन चूंकि सकारात्मक भी हो सकता है और नकारात्मक भी, अतः मनुष्य के साथ विकास एवं विनाश दोनों की ही सर्वाधिक संभावनाएँ जुड़ी हुई हैं। फिर भी, प्रारंभ से ही विवेकशील मनुष्य अपने जीवन-विकास के लिए सतत प्रयत्नशील रहा है और इसीलिए उसने संस्कृति और सभ्यता का विकास किया है और संशोधन एवं संवर्धन के माध्यम से उसकी यह विकास यात्रा सदैव गतिशील होती रही। इसे ही हम मानवीय प्रबन्धन क्षमता का एक रूप कह सकते हैं। मानवीय जीवन के प्रबन्धन के लिए यह समझना आवश्यक होगा कि जीने की प्रक्रिया ही जीवन है (The Process of living is life)। प्रत्येक व्यक्ति के साथ तीन अवस्थाएँ जुड़ी हुई हैं - जन्म, जीवन एवं मरण। इनमें से जन्म और मरण तो क्षणिक हैं और इन पर व्यक्ति का कोई अधिकार नहीं होता, जबकि जीवन अपेक्षाकृत दीर्घकालिक है और इसके अंकुरण, पल्लवन, पोषण एवं विकास पर व्यक्ति का पूर्ण अधिकार होता है। जैनदर्शन आत्मवादी, लोकवादी, कर्मवादी एवं क्रियावादी दर्शन है। अतः इसमें यह माना गया है कि जीवात्मा अपने पूर्वकृत कर्मों के अनुसार ही जीवन की प्राप्ति करता है। यह जीवन मूलतः जीव का ही कार्य है, क्योंकि जो जीता है, वह वास्तव में जीव ही है (जीवति इति जीवः)। फिर भी, व्यावहारिक-दृष्टि से आत्मा और शरीर की सांयोगिक व्यवस्था को भी जीवन कहा जाता है। इस दृष्टि से जीवन पूर्वजन्म और पुनर्जन्म के बीच की एक कड़ी है। जीवन-प्रबन्धन का लक्ष्य इस जीवन को सम्यक् दिशा प्रदान करना ही है। यद्यपि प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन को धन, सम्पत्ति एवं परिजनों से भी अधिक प्रियकर मानता Xxvi Jain Education International जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy