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प्रस्तावना 6
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जैनदर्शन एक प्रामाणिक, प्रासंगिक और प्राचीनतम विचारधारा है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता है - वैज्ञानिक चिन्तन-पद्धति । इसमें अंधविश्वासों और अंधरूढ़ियों से ऊपर उठकर जो सिद्धान्त वर्णित हैं, वे जीवन जीने का सही दिग्दर्शन करते हैं।
जैनदर्शन पर ही आधारित जैन-आचार-मीमांसा (ग्रन्थ) हैं, जिनमें एक ओर व्यक्ति को आध्यात्मिक-शिक्षा के माध्यम से आत्मोन्नति के शिखर तक पहुँचने की प्रेरणा दी गई है, तो दूसरी ओर व्यावहारिक-शिक्षा के माध्यम से अपने वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक एवं राष्ट्रीय जीवन का संतुलित विकास करने की नीतियाँ भी निर्देशित की गई हैं। जैनआचारग्रन्थ न केवल गहन हैं, अपितु व्यापक दृष्टिकोण से युक्त भी हैं। ये व्यक्तिविशेष या समुदायविशेष को लक्ष्य में लेकर नहीं, बल्कि समग्र मानवता को केन्द्र में रखकर रचे गए हैं। इनमें जीवन-प्रबन्धन की सम्यक दिशा का बोध कराने वाली हितशिक्षाएँ प्रचूर मात्रा में उपलब्ध हैं।
वर्तमान परिवेश में जैनआचारग्रन्थों का सम्यक् परिशोधन (Research) कर इनमें निहित प्रबन्धन-सूत्रों को समाज में पुनः प्रतिष्ठित करने की नितान्त आवश्यकता है। कारण यह है कि जैनदर्शन का जो अनैकान्तिक-दृष्टिकोण है, वह जीवन के समग्र , सन्तुलित एवं सुव्यवस्थित विकास को महत्त्व देता है और यह आधनिक युग की तीव्र माँग भी है। भले ही आज प्रबन्धन की नई-नई शाखाएँ सामने आई हैं, जैसे - वित्त-प्रबन्धन (Financial Management), विपणन-प्रबन्धन (Marketing Management), मानव संसाधन-प्रबन्धन (Human Resource Management), संगणक-प्रबन्धन (System Management) आदि, फिर भी इनमें समग्रता का समावेश न होकर, जीवन के कुछैक पहलुओं को ही महत्त्व दिया गया है, जबकि जैन-दृष्टि जीवन के समग्र पहलुओं का समावेश कर जीवन को सन्तुलित बनाने पर जोर देती है। इसमें आध्यात्मिक एवं व्यावहारिक – दोनों ही पहलुओं को यथोचित महत्त्व दिया जाता है, जिसका अनुकरण कर एक समग्र व्यक्तित्व का निर्माण किया जा सकता है। अत एव वर्तमान युग में इसकी प्रासंगिकता को देखते हुए मैंने अपने शोध-प्रबन्ध का विषय “जैनआचारमीमांसा में जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व" बनाया है।
जैनदर्शन केवल सिद्धान्तवादी ही नहीं, अपितु प्रयोगवादी भी है। यह हमें जीवन जीने की सैद्धांतिक (Theoretical) एवं प्रायोगिक (Practical) दोनों प्रकार की शिक्षाएँ प्रदान करता है। प्राचीनकाल में जैनधर्म के आदि तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव ने राज्यावस्था में जिन सामाजिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों की स्थापना की, वे वर्तमान में भी व्यक्ति एवं समाज के जीवन-व्यवहार को समीचीन
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