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________________ है, फिर भी वह, जीवन को कैसे जिया जाए, इस कला से वंचित रह जाता है और उसका जीवन समुचित उपयोग किए बिना ही बीत जाता है। वस्तुतः, जीवन को पाना अलग बात है और जीवन को सम्यक् प्रकार से जीना अलग बात है। जैनाचार्यों ने इसीलिए समस्त मानव जाति को सम्यक् जीवन जीने की जागृति लाने का बारंबार निर्देश किया है। उत्तराध्ययनसूत्र में स्पष्ट कहा गया है कि जीवन की जो रात्रियाँ व्यतीत हो चुकी हैं, उन्हें लौटाया नहीं जा सकता । सूत्रकृतांगसूत्र में वर्त्तमान को लक्ष्य में लेकर कहा गया है कि जो वर्त्तमान क्षण के महत्त्व को जान लेता है, वही वस्तुतः पण्डित (बुद्धिमान) (खणं जाणइ से पंडिए) । प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध में इसीलिए जीवन कैसे जिया जाय, इस बात की चर्चा की गई है । जीवन जीने का यह ढंग, जिसमें जीवन का प्रतिक्षण एक उपलब्धि बन जाए, जीवन को प्रबन्धन से सम्बद्ध करता है। यह जीवन जीने की सम्यक् कला ही जीवन - प्रबन्धन है, इसे ही जीवन-विज्ञान (Science Of Living) भी कहा जाता है। प्रकृष्टं बन्धनम् इति प्रबन्धनम् प्रबन्धन का तात्पर्य निहित उद्देश्यों की पूर्ति हेतु सीमित संसाधनों का उचित समन्वयपूर्वक उपयोग करने की प्रक्रिया ही है । यद्यपि संसाधनों की सीमितता एक बड़ी चुनौती होती है, फिर भी, प्रबन्धन समस्याओं के समाधान में विश्वास रखता है। जहाँ सम्यक् प्रबन्धन का अभाव होता है, वहाँ अधिक संसाधनों के द्वारा भी सफलता नहीं मिलती, किन्तु कुशल प्रबन्धन के द्वारा अल्प संसाधनों से भी अपेक्षित सफलता मिल जाती है । वर्त्तमान युग में इसीलिए प्रबन्धन की व्यापकता, उपयोगिता एवं T लोकप्रियता तेजी से बढ़ी है। आज प्रबन्धन - विधा का प्रयोग व्यावसायिक क्षेत्रों के साथ-साथ चिकित्सा, शिक्षा, परिवार, समाज एवं सार्वजनिक क्षेत्रों में भी होने लगा है। फिर भी, यह कहना आवश्यक है कि प्रबन्धन की विधा का प्रयोग सीमित दायरे में हो रहा है। और जीवन के नैतिक एवं आध्यात्मिक पहलू इससे अभी भी अछूते हैं। फलतः वे क्षेत्र, जहाँ प्रबन्धन की प्रक्रिया का उपयोग किया जा रहा है, भी दुष्प्रभावित हो रहे हैं, क्योंकि वहाँ भी नैतिकता एवं आध्यात्मिकता की कमी होने से असन्तुलन एवं विसंगतियाँ पैदा हो रही हैं। इस हेतु ऐसी प्रबन्धन–प्रणाली का प्रादुर्भाव होना आवश्यक है, जो जीवन के सभी पहलुओं का प्रबन्धन कर सके और इसे ही सही अर्थों में जीवन - प्रबन्धन कहा जा सकता है। वर्त्तमान युग में प्रचलित प्रबन्धकीय विचारधाराएँ मूलतः भौतिकवादी दृष्टिकोण पर आधारित हैं, जिनमें नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों के लिए कोई स्थान नहीं है, इसीलिए हमें कहीं न कहीं उस विचारधारा का आधार लेकर जीवन - प्रबन्धन को वर्त्तमान धरातल पर स्थापित करना होगा, जिससे इन कमियों की पूर्ति हो सके। इस हेतु हमारा आधार जैनआचारमीमांसा है, जिसकी विशेषताओं का वर्णन हमने प्रारंभ में किया है और जिसके माध्यम से वर्त्तमान परिवेश में उपयुक्त जीवन - प्रबन्धन की प्रणाली विकसित की जा सकती है, यही प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध का उद्देश्य है। आधुनिक युग को यद्यपि तीव्र विकास का युग कहा जाता है, फिर भी इसमें जीवन - प्रबन्धन की Jain Education International प्रस्तावना For Personal & Private Use Only xxvii www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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