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________________ होते हैं, जो नहाने, वस्त्र-धोने तथा अन्य कार्यवश आए मनुष्यों की चमड़ी को भेदकर उनके शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। इससे अनेक रोग उत्पन्न होते हैं, जैसे - नारु (Schistosomiasis), एनकायलोस्टोमियासिस (Ankylostomiasis), स्ट्रान्जिलोडियासिस (Strongylodiasis), लेप्टोस्पाइरोसिस (Leptospirosis) आदि।'' इस प्रकार, जैन-परम्परा में पेय एवं अपेय जल के बारे में सात्विक व्यवस्था है। यहाँ सामान्य से सामान्य गृहस्थ को भी छना हुआ तथा मुनि को पूर्णतः उबला हुआ पानी पीने का निर्देश दिया गया है। कहा भी जाता है - ‘पानी पीना छानकर, गुरु बनाना जानकर'। जीवन-प्रबन्धन हेतु कौन सा जल पीना, क्यों पीना, कितना पीना, कब पीना, कहाँ पीना इत्यादि का विवेक रखना अत्यावश्यक है, जिससे शरीर की देखभाल एवं सदुपयोग हो सके। जैनदृष्टि के आधार पर इसकी चर्चा आगे की जाएगी। 5.3.3 प्राणवायु सम्बन्धी विसंगतियाँ __प्राणवायु का जीवन-अस्तित्त्व से गहरा सम्बन्ध है। भोजन और जल के बिना तो व्यक्ति कुछ दिन जी सकता है, लेकिन प्राणवायु के बिना कुछ पल भी नहीं। एक स्वस्थ व्यक्ति सामान्यतया प्रतिदिन इक्कीस हजार बार श्वास लेता है, इस दरम्यान लगभग बीस किलोग्राम वायु अन्दर जाती है।" इस वायु का कार्य फेफड़ों को बल प्रदान करना, रक्त की शुद्धि करना एवं दीर्घायु प्रदान करना है। वायु के बारे में इसीलिए कहा गया है – 'कायानगरमध्ये तु मारुतः क्षितिपालकः' अर्थात् इस कायानगरी में प्राणवायु ही भूपति है। फिर भी आज व्यक्ति प्राणवायु के महत्त्व को अनदेखा कर रहा है। बढ़ता हुआ शहरीकरण, स्वाभाविक हवा, पानी एवं प्रकाश से रहित भवनों का निर्माण, वनस्पति का अतिदोहन, वाहन आदि का अतिप्रयोग - ये सभी कार्य उपर्युक्त तथ्य के साक्षात् प्रमाण हैं। अधिकांश लोगों की दिनचर्या इस प्रकार है कि जब वातावरण अधिक प्रदूषित रहता है, तब तो वे बाजारादि में रहते हैं और जब सुबह-सुबह प्रदूषणमुक्त एवं ताजगीपूर्ण वातावरण रहता है, तब घर की चारदीवारी में बन्द होकर मुँह ढंककर सोते रहते हैं। अवकाश के दिनों में व्यक्ति मनोरंजन के लिए सिनेमा हॉल, क्लब आदि ऐसे स्थानों पर जाना पसन्द करते हैं, जहाँ कभी-कभी तो अतिभीड़ के कारण घुटन भी महसूस होती है। इस प्रकार व्यक्ति पाश्चात्य संस्कृति का अनुसरण कर प्रकृति से विमुख होता जा रहा है, जिससे उसे शुद्धवायु की प्राप्ति दुर्लभ हो गई है। तनाव एवं चिन्ताओं के बढ़ने से व्यक्ति की श्वास-प्रक्रिया भी प्रभावित हो रही है, आज अधिकांश लोग उथली श्वास लेते हैं, जिससे फेफड़ों के लगभग एक-चौथाई भाग का ही उपयोग होता है, शेष तीन-चौथाई भाग निष्क्रिय पड़ा रहता है। इसके प्रभाव स्वरूप फेफड़ों में मौजूद लगभग सात करोड़ तीस लाख कोष्ठकों में से करीब दो करोड़ कोष्ठकों में ही प्राणवायु का संचार हो पाता है, 251 अध्याय 5 : शरीर-प्रबन्धन Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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