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________________ जैसे शरीर की प्रथम इकाई को कोशिका (Cell) कहा है, वैसे ही जैनाचार्यों ने शरीर की मौलिक इकाई को औदारिक वर्गणा कहा है। स्पष्ट है कि इन्होंने शरीर को एक अखण्ड इकाई नहीं, अपितु अनेकानेक पुद्गलों का पिण्ड माना है। इससे ही जैनशास्त्रों में शरीर को ‘काया' भी कहा जाता है। कहा भी गया है - चिनोतीति कायः अर्थात् जो एकत्र होने से बनती है, वह काया है। कर्मग्रन्थकार ने सम्पूर्ण शरीर के तीन विभाग-उपविभाग किए हैं - अंग, उपांग एवं अंगोपांग। इनमें से अंगों' के आठ भेद हैं - दो हाथ, दो पैर, एक पीठ, एक सिर, एक छाती और एक पेट । अंगों के नाक, कान, अंगुलियाँ आदि छोटे-छोटे अवयव उपांग हैं तथा अंगुलियों के पर्व आदि अंगोपांग हैं। शरीर में बाह्य संवेदनों को ग्रहण करने वाली पाँच इन्द्रियाँ होती हैं - त्वचा, जीभ, नासिका, आँख एवं कान। प्रत्येक इन्द्रिय अपने-अपने विषय को ग्रहण करती है। अनुक्रम से इनके विषय हैं - स्पर्श, रस, गन्ध, दृश्य एवं शब्द । इन्द्रियों की जो नेत्रादि रूप बाह्य आकृति दिखती है, उसे 'निर्वृत्ति द्रव्येन्द्रिय' कहा जाता है, यह इन्द्रियरक्षक एवं इन्द्रिय-सहयोगी अंग है। इन्द्रियों के जो कार्यकारी या संवेदक अंग हैं, वे ‘उपकरण द्रव्येन्द्रिय' कहलाते हैं, जैसे – नेत्रादि में श्वेत-कृष्ण मण्डल अथवा पलकादि। इसी प्रकार, देखने आदि की शक्ति होना ‘लब्धि भावेन्द्रिय' और चेतना का ज्ञान-संवेदनों से जुड़ना ‘उपयोग भावेन्द्रिय' है। इन इन्द्रियों का लौकिक एवं आध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति में महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। ये इन्द्रियाँ उम्र के साथ-साथ क्षीण होती जाती हैं, इसीलिए शरीर-प्रबन्धन के अन्तर्गत उन साधनों के सन्तुलित प्रयोग का महत्त्व है, जिनसे इन्द्रियों की उचित देखभाल एवं उपयोग हो सके। शरीर में अंतरंग रूप से अनेकानेक अवयव होते हैं। प्रस्तुत अनुच्छेद में एक सामान्य मनुष्य की दृष्टि से वर्णन किया जा रहा है। शरीर के ऊपरी भाग को शिरोभाग कहते हैं, यह हड्डियों के चार खण्डों से युक्त होता है। आयुर्विज्ञान में पहले को Frontal part, दूसरे को Parietal part, तीसरे को Temporal part एवं चौथे को Occipital part कहा जाता है। चेहरे पर दो आँखे होती हैं, प्रत्येक का परिमाण (माप) दो पल होता है, मुँह में बत्तीस दाँत तथा एक जीभ होती है। जीभ का परिमाण चार पल तथा लम्बाई सात अंगुल होती है। चेहरे के नीचे गर्दन होती है, जिसकी लम्बाई चार अंगुल होती है। गर्दन से नीचे दो हाथ, दो पैर एवं सिर से जुड़ा हुआ धड़ होता है, इसमें हृदय, कलेजा, फेफड़ा, गुर्दा, प्लीहा, आँतें, पित्ताशय आदि मांस-पिण्ड होते हैं। हृदय का परिमाण साढ़े तीन पल एवं कलेजे का पच्चीस पल होता है। पेट की लम्बाई एक बालिश्त (बारह अंगुल) होती है। शरीर में दो आँतें होती हैं - ‘स्थूल आँत' (Large Intestine) मल (Solid Stool) निःसरित करती है एवं 'छोटी आँत' (Small Intestine) द्रवमिश्रित मल (Semisolid Stool/ प्रस्रवण) निःसरित जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व 232 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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