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________________ दुःखद अवस्था को प्राप्त हो जाता है | इस प्रकार, जैनाचार्यों ने शरीर की अनित्यता का मार्मिक चित्रण किया है। जीवन का पूर्वार्द्ध वृद्धिशील होता है, तो उत्तरार्द्ध ह्रासमय। जीवन के उत्तरार्द्ध में क्रमशः आँखों की दृष्टि, बाहुबल, कामभोगों का सामर्थ्य एवं आत्मचेतना क्षीण होने लगती हैं और अन्ततः शरीर झुकने लगता है और इस प्रकार जीवन समाप्त हो जाता है। सुभाषित के द्वारा कहा भी गया है 15 16 शरीर में उपर्युक्त सामान्य दुःखों का अवस्थानुसार आगमन तो होता ही है, साथ ही अनेक रोगादि बाधाएँ भी समय-असमय उपस्थित होती रहती हैं, जो जीवन को अतिदुःखमय बना देती हैं।' जैनाचार्य स्पष्टरूप से कहते हैं कि भले ही किसी को अपना शरीर प्रिय, कान्त एवं मनोज्ञ क्यों न लगे, परन्तु शरीर अध्रुव (अस्थिर), अनित्य, अशाश्वत् एवं विनाशशील है । अतः पहले या बाद में इसका परित्याग तो करना ही पड़ता है। 17 सर्वार्थसिद्धि में भी कहा गया है। 'शीर्यन्त इति शरीराणि " अर्थात् शरीर का विनाश तो अपरिहार्य है, अतः इसके सम्यक् प्रबन्धन के द्वारा सम्यक् जीवन जिया जा सके, यह प्रयत्न प्रत्येक जीवन- प्रबन्धक को करना चाहिए । ,18 - - अंगं गलितं पलितं मुण्डं, दशनविहीनं जातं तुण्डम् । वृद्धो याति गृहीत्वा दण्डं तदपि न मुंचत्याशा - पिण्डम् ।। , (5) जैनदर्शन में शरीर की संरचना (Jain Anatomy ) जैनाचार्यों ने शरीर की न केवल परिवर्त्तनशील अवस्थाओं को बताया है, अपितु शरीर के अंतरंग स्वरूप पर भी प्रकाश डाला है। जैनाचार्यों के अनुसार, शरीर मौलिक रूप से पुद्गल (जड़) पदार्थ से निर्मित है। यह पुद्गल अचेतन पदार्थ है, जो रूप, रस, गन्ध, स्पर्श आदि से युक्त होता है तथा प्रतिसमय उसकी अवस्थाएँ बदलती रहती हैं। पुद्गल की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता है कि वह पूरण (पुद्) एवं गलन (गल) की क्रिया करता रहता है, जिससे उसमें सड़न - गलनादि प्रक्रियाएँ होती रहती हैं। 19 पुद्गल की सूक्ष्मतम इकाई 'परमाणु' है तथा इन परमाणुओं का एक समूह - विशेष 'वर्गणा’ कहलाता है। वर्गणाएँ कई प्रकार की होती हैं, जो विश्व में सभी ओर व्याप्त हैं । इन्हीं में से एक 'औदारिक वर्गणा' है। 231 कर्मग्रन्थ के अनुसार, औदारिक वर्गणाएँ ही एकत्रित एवं संगठित होकर मानव शरीर की रचना करती हैं। जैनाचार्यों ने स्पष्ट कहा है कि मानव शरीर के प्रत्येक अवयव ठोस, तरल (द्रव) अथवा वायु सभी का मूल औदारिक वर्गणा ही है। मूलतः जीव के पूर्वकृत कर्मों के आधार पर औदारिक वर्गणाओं से शरीर के मस्तिष्क, मुख, फेफड़े, गुर्दा, हृदय, उदर, हाथ-पैर, अस्थि, मांस आदि अवयवों की रचना होती है। कहा जा सकता है कि आधुनिक चिकित्सा - शास्त्र (Medical Science) ने अध्याय 5: शरीर-प्रबन्धन Jain Education International For Personal & Private Use Only - 5 www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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