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________________ (3) भ्रूण का विकास-क्रम जैनग्रन्थों के अनुसार, रुधिर एवं वीर्य का मिला हुआ रूप, जिसे भ्रूण कहते हैं, दस रात्रि तक अस्थिर रहता है, फिर दस रात्रि तक कलल होकर ठहरता है, तत्पश्चात् दस दिन में स्थिर होता है। दूसरे महीने लचीला होकर तीसरे महीने में कुछ कठोर हो जाता है। तत्पश्चात् चौथे माह में मांस की डलीरूप हो जाता है। पाँचवे माह में उसमें अंग-प्रत्यंग का निर्माण प्रारम्भ होता है, पाँच पुलक निकलते हैं - पहला मस्तक का, दूसरा और तीसरा हाथों का तथा चौथा और पाँचवां पैरों का आकार धारण करता है। छठे मास में अंग-उपांग स्पष्ट होने लगते हैं, सातवें मास में चमड़ी, नाखून, रोमादि की उत्पत्ति होती है, आठवें मास में गर्भ हलन-चलन करने लगता है एवं अन्ततः नवमें या दसवें मास में गर्भ से निकलकर शिशुरूप में जन्म लेता है। (4) शरीर की दस अवस्थाएँ : जन्म से मृत्यु तक जैनाचार्यों ने मानव के शारीरिक-विकास की क्रम से दस अवस्थाएँ बताई हैं - (क) बाला (0-10 वर्ष) - जन्म के पश्चात् की यह प्रथम अवस्था है। इसमें मानसिक-विकास की अपूर्णता होने से बालक, 'यह सुख है, यह दुःख है, यह भूख है' ऐसा जान नहीं पाता। (ख) क्रीड़ा (11-20 वर्ष) - वह नाना प्रकार की क्रीड़ाएँ करता है, किन्तु उसमें काम-भोगों की वासनाएँ अतितीव्ररूप से उत्पन्न नहीं होती हैं, पन्द्रहवें वर्ष से इनका विकास होने लगता है (यद्यपि फ्रायड नामक मनोवैज्ञानिक की मान्यता इससे भिन्न है)। (ग) मन्दा (21-30 वर्ष) – वह विषय-भोगों को भोगने के लिए समर्थ हो जाता है। (घ) बला (31-40 वर्ष) – वह किसी रोगादि बाधाविशेष के उपस्थित न होने पर अपने बल-प्रदर्शन में समर्थ हो जाता है। (ङ) प्रज्ञा (41-50 वर्ष) – वह धन की चिन्ता करने के लिए समर्थ होता है एवं परिवार का पोषण करता है। (च) हायनी (51-60 वर्ष) – इन्द्रियों में शिथिलता आने से काम-भोगों के प्रति उसे विरक्ति होने लगती है। (छ) प्रपंचा (61-70 वर्ष) – मुख से स्निग्ध लार एवं कफ गिराने लगता है और बार-बार खाँसता रहता है। (ज) प्रग्भारा (71-80 वर्ष) – वह बूढ़ा हो जाता है एवं उसकी चमड़ी पर झुर्रियाँ आ जाती हैं। (झ) मुन्मुखी (81-90 वर्ष) – उसका शरीर वृद्धावस्था से पीड़ित हो जाता है, उसकी काम-वासना समाप्तप्रायः हो जाती है। (ञ) शायनी (91-100 वर्ष) - उसकी वाणी क्षीण एवं स्वर भिन्न हो जाता है, वह भ्रान्तचित्त, दुर्बल एवं जीवन-प्रबन्धन के तत्त्व 230 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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