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________________ सार रूप में कहा जा सकता है कि जीवन एक है, किन्तु इसके विविध पहलू हैं, जिनका सम्यक् प्रबन्धन करना ही जीवन - प्रबन्धन है। मुनिश्री मनीषसागरजी आध्यात्मिक जीवन - दृष्टि सम्पन्न एक युवा संत हैं, उनका लक्ष्य आत्म-शान्ति की प्राप्ति के साथ समाज को एक स्वस्थ और सकारात्मक मानसिकता की दिशा में प्रेरित करना है। यही कारण है कि उन्होंने युवावस्था में ही अध्यात्म सम्पन्न परम पूज्य श्रीमहेन्द्रसागरजी म.सा. (सांसारिक पू. पिताजी) के सान्निध्य में संन्यास - मार्ग का चयन किया। स्वयं B.E. एवं M.B.A. होकर भी वे युवावस्था में संन्यास के कंटकाकीर्ण मार्ग पर चल पड़े। अपनी अध्ययन - वृत्ति को गतिशील रखने के लिए जब उन्होंने मुझसे मार्गदर्शन चाहा, तो मैंने उन्हें "जैन आचार मीमांसा में जीवन - प्रबन्धन के तत्त्व " यह विषय सुझाया। मुनिश्री ने सम्यक् एवं कठिन परिश्रम करके चार वर्ष की सुदीर्घ अवधि में यह शोध-प्रबन्ध तैयार किया है। चाहे मार्गदर्शन मेरा रहा हो, किन्तु सारा परिश्रम तो उनका और उनके सहयोगी मुनि मण्डल का ही है । प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध अतिव्यापक है, इसमें निम्न चौदह अध्याय हैं 1. जीवन - प्रबन्धन का पथ 2. जैनदर्शन एवं जैनआचारशास्त्र में जीवन - प्रबन्धन 3. शिक्षा - प्रबन्धन 8. पर्यावरण- प्रबन्धन 9. समाज - प्रबन्धन 10. अर्थ - प्रबन्धन 11. भोगोपभोग - प्रबन्धन 12. धार्मिक - व्यवहार - प्रबन्धन 13. आध्यात्मिक - विकास - प्रबन्धन 4. समय- प्रबन्धन 5. शरीर - प्रबन्धन 6. अभिव्यक्ति - प्रबन्धन 7. तनाव एवं मानसिक विकारों का प्रबन्धन 14. जीवन - प्रबन्धन : एक सारांश यह शोध-प्रबन्ध मुनिश्री के अध्ययन की व्यापकता और उपादेयता को सूचित करता है। इसमें प्रबन्धन की आधुनिक विधि और जैन जीवन-मूल्यों का अद्भूत संयोग । इससे इस ग्रन्थ की मूल्यवत्ता भी स्पष्ट हो जाती है। यह ग्रन्थ कैसा और कितना महत्त्वपूर्ण है, यह बताना तो पाठकों एवं विद्वानों का कार्य है। फिर भी, वर्तमान युग में युवकों की दृष्टि से इसकी मूल्यवत्ता को नकारा नहीं जा सकेगा, ऐसा मैं विश्वासपूर्वक कह सकता हूँ । मुनिश्री से मेरी यही अपेक्षा है कि युवावस्था में सतत परिश्रम करते हुए युवाओं को सम्यक् मार्गदर्शन देने हेतु वे अपनी लेखनी का सतत उपयोग करते रहें और जिनवाणी रूपी सरस्वती (जैन - विद्या) की निरन्तर सेवा करते रहें । पाठकों से निवेदन है कि वे इस ग्रन्थ का अध्ययन कर सम्यक् दिशा में अपने जीवन की प्रगति करते रहें, इन्हीं शुभभावों के साथ 1 xxii Jain Education International === जीवन- प्रबन्धन के तत्त्व For Personal & Private Use Only प्रो. सागरमल जैन www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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