SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 29
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्राप्त होते हैं, किन्तु यह शिक्षा किसी स्कूल एवं कॉलेज में नहीं दी जाती, अपितु परिवार और समाज से ही प्राप्त होती है । स्वस्थ मनुष्य एवं स्वस्थ समाज के लिए इन जीवन-मूल्यों का प्रशिक्षण आवश्यक परिवार, समाज और धर्म ही है । सुसंस्कारों का वपन है, किन्तु इसकी प्राथमिक पाठशाला जीवन - प्रबन्धन की शिक्षा द्वारा सम्भव है। वस्तुतः, समाज - प्रबन्धन समाज का प्रबन्धन नहीं है, वह अपनी जीवनशैली का प्रबन्धन है। वह समाज के दूसरे सदस्यों के प्रति हमें सम्यक् जीवनशैली या सम्यक् व्यवहार अपनाने की कला सिखाता है । आज सामान्य जन की एक मान्यता यह है कि समाज सुधार से व्यक्ति का सुधार होगा, किन्तु यह एक गलत अवधारणा है। समाज का प्रमुख घटक व्यक्ति है, जब तक वैयक्तिक स्तर पर सुधार के प्रयत्न नहीं होंगे, समाज सुधार सम्भव नहीं है। भारतीय चिन्तन में जो चार पुरूषार्थ माने गए हैं, उनमें से धर्म, अर्थ और काम ये तीन समाज-आधारित हैं। - धर्मव्यवस्था या धर्मतन्त्र का मुख्य कार्य तो सम्यक् सामाजिक जीवनशैली का विकास करना ही है । एक सभ्य एवं सुसंस्कृत समाज का निर्माण त्याग एवं संयम के धार्मिक मूल्यों को जीवन - व्यवहार में स्थान देने से ही सम्भव है। अतः हमें समाज या परिवार के दूसरे सदस्यों के हित-साधन हेतु त्याग, समप्रण एवं सेवा के धार्मिक मूल्यों को आत्मसात् करना आवश्यक है। धर्म एक नियामक जीवन-मूल्य है, दूसरे शब्दों में, धर्म ही अर्थ, काम और पास्परिक - व्यवहार का नियामक है। इसलिए कहा जाता है कि "आचारः प्रथमो धर्मः"। धर्म केवल जानने या मानने की वस्तु नहीं है, वह सम्यक् ढंग से जीवन जीने का एक तरीका भी है। कहा जा सकता है कि धार्मिक-व्यवहार- प्रबन्धन भी जीवन - प्रबन्धन का एक आवश्यक अंग है । 'अर्थ' और 'काम' जीवन के एक आवश्यक अंग हैं, किन्तु जहाँ एक ओर उनकी सम्पूर्ति जरूरी है वहीं दूसरी ओर उनका संयम भी आवश्यक है, क्योंकि अर्थ और काम जीवन के साध्य नहीं हैं, साधन हैं। साधन आवश्यक होते हैं, किन्तु उनकी मूल्यवत्ता साध्य को पाने में निहित होती है। साधन को ही साध्य बना लेना या मान लेना ही जीवन की सबसे भयंकर भूल है, धर्म में इसे ही 'मिथ्यात्व' कहा गया है। साधन को साध्य की प्राप्ति के लिए अपनाना होता है, किन्तु हमारी रागात्मकता या आसक्ति उसे ही साध्य मान लेती है और ऐसी स्थिति में मूल लक्ष्य कहीं दृष्टि से ओझल हो जाता है। अर्थ और काम (रोटी, कपड़ा, मकान आदि) मूलतः आत्म - शान्ति के हेतु हैं, किन्तु जब व्यक्ति इन्हीं साधनों को साध्य बना लेता है, तो वह अपने मूल लक्ष्य आत्म-तोष या आत्म- शान्ति से वंचित हो जाता है। साधनों को अपनाना आवश्यक है, किन्तु ध्यान रहे कि ये साधन कहीं साध्य न बन जाएँ, अन्यथा तृष्णाजन्य दुःख के महासागर से पार हो पाना कठिन होगा। जीवन - प्रबन्धन का मूल लक्ष्य भी एक ऐसी जीवनशैली का विकास करना है, जो मानव प्रजाति को सम्यक् सुख (आनन्द) और शान्ति प्रदान कर सके और उसका सम्यक् दिशा में आध्यात्मिक - विकास हो सके और अन्ततः वह शाश्वत् जीवन-मूल्य आत्म-शान्ति को प्राप्त हो सके। इस प्रकार, अर्थ व काम का प्रबन्धन कर अन्ततोगत्वा आध्यात्मिक - विकास या जीवन-मुक्ति का प्रबन्धन करना जीवन- प्रबन्धन का चरम लक्ष्य है। Jain Education International सम्पादकीय For Personal & Private Use Only XXI www.jainelibrary.org
SR No.003975
Book TitleJain Achar Mimansa me Jivan Prabandhan ke Tattva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManishsagar
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2013
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy